टहलते हुए आइए, सोचते हुए जाइए.

Sunday, March 8, 2009

सोच का अन्तर

यत्र-तत्र सर्वत्र घूमनेवाले दो साधू एक नदी के किनारे से गुजर रहे थे। नदी किनारे एक युवती थी। उसे नदी पार करना था। परन्तु उस समय वहां कोई नाव नहीं थी और नदी का पानी भी बहुत गहरा था। उसे तैरना भी नहीं आता था। लिहाजा, वह नदी पार कर नहीं पा रही थी। दोनों में से एक साधू ने उसे प्रस्ताव दिया की वह उसकी पीठ पर सवार हो जाए, वह उसे नदी पार करवा देगा।" युवती मान गई। साधू ने उसे पीठ पर बिठाया और नदी पार करा दिया। फ़िर वह दुबारा इस पार आया जहां उसका दूसरा साथी उसकी राह तक रहा था।

वे दोनों फ़िर से साथ-साथ चलने लगे। दूसरे साधू का चेहरा उतारा हुआ था। वह कुछ परेशान सा लग रहा था। वह अनमने तरीके से चल रहा था। पहलेवाले साधू ने उससे पूछा की बात क्या है?" दूसरे साथी ने कहा की "हमलोग जिस सम्प्रदाय से आते हैं, उसमं मोह, माया आदि की कोई जगह नहीं होती। स्त्रियों के लिए तो खासा तौर से उसकी सांगत की मनाही है। उसे देखना या बात करना भी निषिद्ध है। और ऐसे में तुमने उससे न केवल बात की, बल्कि उसे अपनी पीठ पर लाड भी लिया और नदी पार भी करवाया। इतनी देर तक तुम उस स्त्री के परस और सांगत में रहे?"

पहलेवाले साधू ने उत्तर दिया, "अच्छा? मैं जिस काम को करके भूल भी गया, उसे तुम अभी तक उसे याद कर रहे हो? जिस स्त्री को मैंने पीठ पर लादा, उसकी शकल, परस तो मुझे पाता भी नहीं और तुम इस बात को अभी तक दिमाग में लादे घूम रहे हो?

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