टहलते हुए आइए, सोचते हुए जाइए.

Tuesday, December 16, 2008

गृहस्थ या वैराग्य जीवन

एक आदमी अपने गृहस्थ जीवन से बहुत तंग आ कर वैराग्य लेना चाहता था। इसके लिए वह एक साधू के पास गया। साधू ने कहा की वैराग्य जीवन बहुत मुश्किल जीवन है, तुम उसमें राम नहीं सकते। इसलिए यह विचार छोड़ दो। मगर आदमी को यह बात ग़लत लगी। उसने कहा की गृहस्थ जीवन की दसियों मुश्किलें हैं, वैराग्य में तो कुछ करना ही नहीं होता है। साधू ने कहा की ठीक है, मैं तुम्हारी परीक्षा लूंगा। अगर तुम उसमें सफल हो गए तो मैं तुम्हें वैराग्य दिलवा दूंगा।
साधू ने उसे एक महल जैसे घर में रखवा दिया। उसकी सेवा के लिए दास-दासी थे। खाने में उसे पूरी, मेवे मिष्टान्न मिलते। उसके पास सुख और आराम के सभी साधन थे, चिंता की कोई बात नहीं थी। आदमी बड़ा प्रसन्न था।
कुछ दिनों बाद साधू ने उसे एक झोपडी में रखवा दिया। वहाँ उसे रूखा-सूखा खाने को मिलता। अपने सारे काम उसे ख़ुद कराने पड़ते। झोपडी में न बत्ती थी, न पंखा। आदमी परेशान होकर साधू के पास गया और कहा की उसे बहुत तकलीफ हो रही है। वे क्यों नहीं उसे पहले वाले घर में रख देते हैं? साधू ने मुस्कुराते हुई कहा की यह तो तुम्हारी परीक्षा की दूसरी सीधी ही है। इसी में तुम दुखी होने लगे। अभी तो वैराग्य जीवन में इससे भी अधिक कष्ट उठाने पड़ेंगे। अभी तो तुम्हें अपना सारा स्वार्थ छोरकर दूसरों के सुख के लिए काम करना होगा। गिरहस्थ जीवन वैराग्य से भी मुश्किल है मगर गृहस्थ जीवन में तुम अकारण के लोभ, लालच, मद, क्रोध आदि से दूर रहकर भी वैराग्य जीवन बिता सकते हो, जबकि वैराग्य जीवन में तुम गृहस्थी के सुख नहीं भोग सकते। फ़िर गृहस्थ जीवन तुम्हारी अपनी जिम्मेदारी है और जो अपनी जिम्मेदारियों से बचने के लिए वैराग्य अपनाता है, उसे कभी भी सुख हासिल नहीं होता।
साधू की बात सुनकर आदमी की समझ में सबकुछ आया और वह साधू को प्रणाम करके अपने घर लौट गया।