टहलते हुए आइए, सोचते हुए जाइए.

Tuesday, July 22, 2008

कुत्ते की दुम - टेढी की टेढी

एक आदमी था- बेहद कर्कश और लडाका। हर किसी से किसी न किसी बात पर लड़ बैठता। पत्नी- बच्चे बेहद दुखी और परेशां। एक दिन उसके घर एक साधू भीख माँगने पहुंचे। संयोग से आदमी घर पर ही था। उसने साधू को बेईज्ज़त करके घर से निकाल दिया। पत्नी के विरोध करने पर उसे भी खूब भला-बुरा कहा। साधू चुपचाप मुस्कुराते हुए चले गए।
दूसरे दिन साधू फ़िर पहुंचे। उस दिन आदमी घर पर नहीं था। पत्नी ने पति का गुस्सा काबू में करने के उपाय पूछे। साधू ने कहा, "तुम उसे लेकर मेरे पास आओ।"
बड़ी कोशिश -मिन्नत के बाद आदमी पत्नी के साथ साधू के यहाँ पहुंचा। दर असल वह भी अपने स्वभाव का खामियाजा कई बार झेल चुका था। उसने भी सोचा, क्या पता, कहीं कोई उपाय मिल ही जाए।
साधू ने उसे सफ़ेद तरल पदार्थ की एक बड़ी सी बोतल दी और कहा कि जब कभी तुम्हे लगे कि तुम्हे बहुत तेज गुस्सा आ रहा है, इसकी एक ढक्कन दवा अपने मुंह में रख लेना। सावधान, इसे निगलना नहीं। जब तुम्हारा गुसा शांत हो जाए तो इसे किसी झाडी या पौधे की जड़ में फेक देना।
आदमी ने ऐसा ही करना शुरू कर दिया। आश्चर्य कि उसके व्यवहार में बहुत बदलाव आ गया। एक -दो महीने बाद वह दवा ख़त्म होने पर आदमी फ़िर से साधू के पास दवा लेने पहुंचा। साधू ने उसे बताया कि वह दवा नहींं, बस सादा पानी था। मुंह में रखे रहने से तुम बोलने में असमर्थ हो जाते थे। इसलिए तुम किसी को जवाब नहीं दे पाते थे। उस पानी को किसी झाड़ में फेकने से उस झाड़ को भी पानी मिल जाता था। इस तरह से एक्पंथ दो काज होते गए। अब तुम्हें किसी भी दवा की ज़रूरत नहीं। "
आदमी यह सुनते ही क्रोध में भर आया और लगा चीखने-चिल्लाने कि साधू ने उसे बेवकूफ बनाया है। साधू कुछ नहीं बोले और पहले की ही तरह मंद -मंद मुस्काते रहे। आदमी फ़िर से अपने रंग पर आ गया। सच ही कहा है कि स्वभाव व् कुत्ते की पुँछ एक जैसी ही रहती है- टेढी की टेढी।

Tuesday, July 15, 2008

चम्पाकली

आज अपना नाटक 'अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजो' पर काम कर रही थी। उसमें प्रयुक्त यह लोक कथा याद आ गई। विषय बहुत ही संवेदनशील होने के कारण हर बार मन ख़राब हो जाता है। मनुष्य की वासना उसे कहाँ-कहाँ ले जाती है, यह नाटक का कथ्य है, जिसे आधार देने के लिए इस लोक कथा को उसमें दिया गया है। कथा है-
"राजा की अनिन्द्य सुंदर बेटी चम्पाकली पर उसके ही सगे भाई की नज़र थी और वह उसे हर हाल में पाना चाहता है। एक दिन जब चम्पाकली महल में नहीं थी, राजकुमार उसकी पसंद का एक जंगली फल- भटकोयें, महल के ताखे पर रखवा देता है और मुनादी करवा देता है कि जो भी इन फलों को खाएगा, राजकुंमार का विवाह उसी के साथ होगा। ननिहाल से लौटने पर चम्पाकली उन फलों को देखा कर खुश हो जाती है और उन्हें खा लेती है। पुत्र -मोह में पड़कर राजा चम्पाकली का ब्याह राजकुमार से कराने को राजी हो जाते हैं। रानी के विरोध का इस पुरूष -प्रधान समाज में कोई स्थान है नहीं। राजा यह ताकीद भी करा देता है कि चम्पाकली को यह पता तो चले कि उसका ब्याह हो रहा है, मगर यह नहीं कि किसके साथ हो रहा है। जान के डर से सभी चुप थे। चम्पाकली असहज अनुभव कर रही थी। वह सबसे पूछती कि उसकी शादी से लोगों के चहरे पर खुशी क्यों नहींं है? लोग कुछ-कुछ बहाने बना कर वहाँ से टाल जाते। एक दिन तोता-मैना का एक जोड़ा दाना चुगने वहाँ पहुंचता है। मैना तोते को आगाह करती हुई कहती है कि ऐसे अनाचारी राजा के यहाँ का दाना चुगना नर्क में जाने से भी बदतर है, जहाँ सगे भाई- बहन में शादी करवाई जा रही हो। चम्पाकली यह सुन स्तब्ध रह जाती है। अगले ही दिन उसका ब्याह होनेवाला था। वह उसी रात अपने सारे गहने -कपडे पहन नदी घाट जाती है, नाव खोलकर बीच धार पहुँच जाती है। मल्लाह भागा-भागा राजा को ख़बर करता है। राजा, रानी, राजकुमार सभी उसे लौट आने को कहते हैं। मगर चम्पाकली कहती है कि वह कैसे लौट सकती है उस घर में, जहाँ उसके पिता उसके ससुर, उसकी माता उसकीसास और उसका अपना भाई ही उसका पति बननेवाला है। और वह नदी में डूब कर अपने प्राण दे देती है।"
कथा यहाँ समाप्त होती है, मगर आज यह वहशी प्रवृत्ति बड़ी तेजी से फ़ैल रही है, जिसमें अपने ही नज़दीकी रिश्तेदारो, पड़ोसियों आदि की हवस का शिकार बच्चियां बनती हैं। क्या हम उन्हें यह सिखाएं कि समाज में, घर में किसी पर यकीन ना करो। और vishvaas से रहित इस धरती पर क्या कोई जी सकता है?