टहलते हुए आइए, सोचते हुए जाइए.

Tuesday, December 11, 2007

किसे खाऊँ?

एक औरत बड़ी जबरदस्त थी, जबकि उसका आदमी बड़ा ही सीधा-सदा। एक दिन वह एक बोरा धान लेकर आया और बीबी को देते हुए कहा कि इसका वह चिवडा कूटकर रखे। जाड़े की धूप में इसे गुड के साथ खाने में बड़ा अच्छा लगता है।
आदमी काम से दस दिन के लिए बाहर गया। औरत ने चिवडा कूटकर तैयार किया। मगर खुद उसकी सुगंध से इतनी मतवाली हो गई कि घूम घूम कर उसने सारा चिवडा खा लिया। मुट्ठी भर बच गया। अब वह सोच में पडी कि वह आदमी को क्या जवाब देगी?
उसने एक उपाय सोचा। चिवडे की जगह बर्तन में उसका भुस रख दिया। रात में आदमी ने आने पर चिवडे की माँग की तो वह टाल गई और कहा कि वह कल सुबह सुबह खाए. रात में आदमी के सोने पर वह एक काला कम्बल ओढ़कर उसके पास गई और नकियाई आवाज में कहने लगी- तुम्हें खाऊं कि तुम्हारी घरवाली को कि भर घर भुस भरूँ। आदमी को लगा कि सच में चुडैल आ गई है, जभी तो नकियाई आवाज़ में वह बोल रही है. सीधा साधा तो वह था ही. वह घबडा गया और कहने लगा कि वह न उसे खाए, न उसकी घरवाली को। बस, घर में भले वह भुस भर दे। जान बचेगी तो फिर से धान आ जाएगा और उसकी प्यारी सी घरवाली फिर से उसके लिए चिवडा कूट देगी।
सुबह औरत ने कहा कि वह उसके लिए चिवडा लेकर आती है। आदमी ने उसका हाथ पकड़ लिया और रात का सारा माजरा कह सुनाया। औरत ने अविश्वास का नाटक करते हुए भंडार में जाकर देखा और चिल्ला पडी कि सच में लगता है कि रात में चुडैल आई थी। आदमी को यकीन ही नहीं हुआ कि यह सब उसकी घरवाली की करामात है। औरत अपनी योजना कारगर होते देख फूली ना समाई.

Monday, November 19, 2007

सामा चकेबा

मिथिला में बहनें भी के लिए एक अद्भुत खेल खेलती हैं। कार्तिक सुदी ५ से इसे खेला जाता है और पूर्णिमा के दिन इसका समापन होता है। महिलाएं व लडकियां एक ग्रुप में इसे हर रात खेलती हैं। इसका पूरा आनंद इसे देखकर व इसमें शामिल होकर ही लिया जा सकता है। यह द्वापर युग की कथा है। आगे इस अवसर पर गाए जानेवाले कुछ गीत भी हम इसमें देंगे)
राजा जाम्बवंत ने अपनी बेटी जाम्बवंती की शादी श्री कृष्ण से की, जिससे उन्हें एक बेटा और एक बेटी हुए। इनके नाम थे- शाम्ब व शाम्बा। शाम्बा का प्रेम चारुक्य नामक युवक से हुआ। चूडक नाम के चुगलखोर ने इसकी शिक़ायत कृष्ण से कर दी। उन्होंने शाम्बा को श्राप दे दिया कि वह चकवी पक्षी बनकर सारे समय आकाश में विचरती रहे। यह देख चारुक्य ने शिव की तपस्या कर के शाम्बा को फिर से मानव रूप का वर माँगा। मगर शंकर ने कहा कि भगवान कृष्ण का श्राप वे नहीं बदल सकते, मगर वे उसे भी चकवा पक्षी बनाकर आकाश में शाम्बा के साथ विचरने का वर दे सकते हैं। वे दोनों अब आकाश में विचरने लगे। आकाश में निरंतर विचरने से उनकी हालत खराब होने लगी। सात भाइयों के पक्षी दल उन्हें दाना उड़ते उड़ते चुगाते और अपनी पीठ पर उन्हें बिठा कर खुद उड़ते रहते।
बहन के इस हाल से शाम्ब बहुत दुखी था। वह वृन्दावन में जाकर भगवान विष्णु की आराधना करने लगा ताकि वह उन दोनों को मनुष्य रूप में वापस ला सके। चूड़क ने वृन्दावन में आग लगा दी। शाम्बा का प्यारा कुत्ता झांझी अब शाम्ब के साथ रहता था। आग लगाते चूड़क का उसने मुँह नोच लिया और मुँह में पानी भर भर कर आग बुझाई।
शाम्ब की तपस्या सफल हुई। पर कृष्ण ने उन्हें अपने राज्य में आने की अनुमति नहीं दी। शाम्ब ने उन्हें राज्य के बाहर एक जुते खेत में ठहराया। उसके स्वागत में गीत गए- साम -चक , साम चक अबिहे हे, जोतला खेत में बैसिहे हे ... शाम्बा और चारुक्य को लोग दुलार से सामा- चकेबा कहने लगे। चकेबा की एक बहन थी- खरलीच। भाई- भाभी को पाकर वह बड़ी प्रसन्न हुई। चूडक को शाम्ब ने श्राप दिया कि उसकी चुगलखोर प्रवृत्ति के कारण लोग उसका मुँह जलाएंगे और समाज में उसे कभी भी सम्मान नहीं मिलेगा।
शाम्ब ने यथा संभव धन धान्य देकर बहन- बहनोई को विदा किया। भाई- बहन के इसी उदात्त प्रेम को इस खेल में व्यक्त किया जाता है।

Saturday, November 10, 2007

सोनचिरई


मिथिला में भाईदूज के अवसर पर कही जानेवाली कथा-

सात भाइयों के बीच की दुलारी बहन -सोनचिरई। बड़ी सुन्दर, बड़ी नटखट। सातो भाई परदेस कमाने गए। सोनचिरई को भाभियों के हवाले किया और सख्त ताकीद की की उसे कोई कष्ट न पहुंचे। जो लौटने पर उन्हें इसका पता चला तो उन्हें जिंदा खौलते तेल में झोंक दिया जाएगा।

सातो भाई परदेस गए और इधर भाभियों के उत्पात शुरू। बड़ी ने कहा, बिना ऊखल मूसल के धान के चावल बना ला। जो एक भी चावल कमा तो जलती लकडी से दागूंगी।

सोनचिरई क्या करे? तभी चिडियों का एक झुंड आया और उन्होने मिलकर सभी धान का चावल बना दिया। एक कानी चिडिया ने एक चावल चुरा लिया। भाभी ने गिना तो एक चावल कम। बस लगी जलती लकडी से दागने। रोती सोनचिरई फिर वापस लौटी। कानी चिडिया ने दाना लौटा दिया।

दूसरी बोली- जा, छन्नी में पानी भरकर ला। एक बूँद पानी बाहर नहीं गिरना चाहिए। नदी किनारे जाकर सोनचिरई फिर रोने लगी। नदी से काई निकल कर छन्नी की तह में जाकर बैठ गई।

तीसरी ने कहा- बिना बन्धन के जंगल से लकडी काटकर ला। जंगल में सोनचिरई ने लकडी जमा तो कर ली, लेकिन ले कैसे जाए? तभी एक सांप आया और बोला," तुम मुझसे लकडी बाँध लो। बस, लकडी नीचे रखते समय धीरे से रखना। मैं आस्ते से निकल जाऊंगा।

सोनचिरई भाभी के पल्ले नहीं पड़ रही थी। वे सभी परेशान थीं। केवल सबसे छोटी भाभी उसे कुछ न कहती, बल्कि सभी से छुपाकर वही उसे खाना पीना भी देती।

बारह बरस बीतने को आए। भाभी के अत्याचार का कोई अंत नहीं था। एक ने कहा, जा नदी किनारे और इस काले कम्बल को सफ़ेद कर ला। जबतक कम्बल सफ़ेद न हो जाए, तबतक घर मत लौटना। नदी किनारे पहुंचकर सोनचिरई फूट-फूटकर रोने लगी- भाई कब लौटेंगे, कब उसके दुःख दूर होंगे। वह कम्बल धोती जाती, और रोती रोती कहती जाती- ' सातो भैया गेल परदेस, सोनचिरई के दुःख दैयो गेल"

बारह बरस पूरे हो रहे थे। भाई भी अब परदेस से लौट रहे थे। एक ने कहा- ' भाई रे, आवाज से तो लगता है, अपनी सोनचिरई है।' दूसरे ने कहा, 'ऐसा कैसे हो सकता है? हमने तो उसे लाड प्यार से रखने को कहाथा।" बडे भाई ने आवाज़ साधकर तीर फेंका। तीर सोनचिरई के पैर के पास आकर गिरा। वह तीर पहचान कर और भी जोर जोर से रोने लगी। भाई भी जल्दी -जल्दी वहाँ तक पहुंचे। सोनचिरई की हालत देख कर सब समझ गए। बडे भाई ने सोनचिरई को अपनी जांघ में छुपा लिया और सभी घर पहुंचे।

सभी भाभियाँ अगवानी को दौडीं। लेकिन भाइयों ने कहा कि वे पहले सोनचिरई से मिलेंगे। सभी टालमटोल करने लगीं। बडे भाई ने जांघ के भीतर से सोनचिरई को निकाला। उन्होंने भट्ठी खुदवाई, बडे कडाह में तेल गरम करवाया और सभी को उसमे से पार जाने को कहा। सभी आती गई और कहती गईं- ताई, ताई, ताई, जिन ननद सताई, तिनी ताई में भुजाई, न तो पार उतराई। एक -एक कर छहों भाभी कडाह में उतरती गई और उसमें भस्म होती गई। केवल सबसे छोटी भाभी सकुशल कडाह के पार उतर गई। सातो भाई और सोनचिरई सुख से रहने लगे। भाभी जैसी बुद्धि किसी की न हो और सोनचिरई के भाईई जैसे सभी के भाई हों।

Thursday, November 8, 2007

एक दीप से जले दूसरा

सुजन काका की आंखों से आंसुओं की धार बह रही थी। आज अगर शंकर होता .... उनका गला भर आया। छाती का बलगम गले में पहुंच गया तो ठसका लग गया और वे जोर जोर से खांसने लगे। बहुरिया आस्ते से गरम पानी का लोटा और उगालदान रखा गई। सुजन काका ने गरम पानी की एक दो घूँट भारी तो थोडा आराम मिला। मगर बहुरिया को देखा कर फिर से कलेजा मुँह को आ गया। चाँद सी बहुरिया अमावस का चाँद हो गई है। शंकर के जाने के बाद से आज तक उसने बहुरिया के चहरे पर हँसी की रेख तक नहीं देखी है।
काकी भी उसे देखकर हाय भर उठाती हैं। भारी जवानी में ईश्वर दुश्मन को भी यह दिन ना दिखाए। शंकर के जाने के बाद से काकी ने भी चटक रंग की साडी पहनना, माँग में सिन्दूर भरना छोड़ दिया है। कैसे सजे धजे वह पीर की इस साक्षात मूरत के सामने।
आज तो दीवाली है। आज ही के मनहूस दिन सुजन काका को खबर मिली थी की देश की रखवाली करतेउनकाबेटा शहीद हो गया। वे चीख भी नहीं सके। काकी कलेजा फाड़कर रो पडी और बहुरिया तो जैसे जीती जागती लाश में बदल गई।
तब बहुरिया उम्मीद से थी। अब गोद में सात मास की किरण है। सभी उसी में उलझे रहते हैं। शाम हो गई थी। सभी के घर दीप जलाने की तैयारियां हो रही थीं। सुजन काका ने किरण का माथा सहलाते हुए कहा- "बिटिया, माँ से कह की दीप जलाए।
बहुरिया आँगन में दीप रखकर जलाने लगी। उसका मन बार-बार अतीत की और भागा जा रहा था। दो बरस पहले शंकर यहाँ था। कितना सुहावना सबकुछ था। बदला तो कुछ भी नही है, मगर एक के न रहने से जीवन बदल जाता है। नन्ही किरण बाप को जान भी नहीं पाई। दीप में टेल के बदले जैसे आंसू भर रहे थे। उसने एक दीप जलाया। फिर उसी से दूसरा जलाने लगी की काकी ने टोका- "दिए से दिया नहीं जलाते हैं। अपशकुन होता है। बहुरिया की समझ में नही आया की अब वह कैसे दीप जलाए। किरण बार बार लौ की तरफ लपक रही थी।
तभी बाहर कुछ शोर सुनाई दिया, जो उनके घर के पास आकर और तेज हो गया। सुजन काका, काकी, बहुरिया सभी के कलेजे में धकधकी समा गई। अब क्या? तभी सभी ने देखा की शंकर अन्दर आ रहा है। ये कया? सुजन काका, काकी के मुँह से बोल नहीं फ़ुट रहे थे- 'भगवान, यह सपना है या सच?"
शंकर ने उनके पाँव छुए औएर बोला, 'घिर गया था दुश्मनों के बीच। कोई खबर नहीं मिलाने से सभी ने मुझे मरा समझ लिया था। आपके आशीष से आप सबके सामने हूँ। किरण पर उसकी नज़र परी। पलक झपकते वह सब समझ गया। झट से उसे उठा कर गोद में भर लिया। काकी ने बहुरिया से कहा,' जला बेटी, एक दीप से दूसरा दीप जला। आज जितना बड़ा शकुन सबके जीवन में आए। लेकिन दीप जलाने से पहले उठ, ज़रा अच्छी साडी निकाल कर पहन।' आगे वह बोल न पाई, मगर उनके आंसू बोलते रहे। किरण वैसे ही दीप की और देखा देख कर उसकी और लपक रही थी।

Wednesday, November 7, 2007

रोशनी का धर्म

एक बूढा आदमी था। वह बहुत गरीब था। मगर दिल का बहुत नेक था। वह रोज दिन शाम होते ही अपनी एक लालटेन जलाता और उसे अपने घर के सामने के पेड़ पर टांग देता। उसकी यह लालटेन कहते हैं की बहुत पुरानी थी। लेकिन वह उसे हमेशा सहेज कर, साफ सुथरा करके रखता। उसके शीशे भी इतने साफ रहते की एकदम नए जैसे दिखते। बारिश या आंधी-तूफान में वह उसे अपने घर की खिड़की पर रख देता। घर की खिड़की बंद कर देता, मगर उसके बाद भी खिड़की से रोशनी बाहर तक पहुँचती रहती।
लोगों को उसका यह काम नहीं सुहाता. सभी उसका मजाक उडाते। सभी उसे कहते की पगला गरीब बुड्ढा न जाने क्यों अपने पैसे बर्बाद करने पर तुला रहता है। वह तो अकेला रहता है। तो शाम होते ही खा पीकर वह सो क्यों नहीं जाता। इससे लालटेन के तेल का खर्चा भी बचेगा और उसकी मेहनत भी।
एक दिन एक आदमी से न रहा गया। वह उसके पास गया और यही बात उससे कही। बूढा गंभीर हो गया। थोडी देर वह चुप रहा। फिर धीरे- धीरे उसने कहा- यह रोशनी मुझे अपने लिए नहीं चाहिए। मैं तो इसे इसलिए जला कर रखता हूँ की रात-बेरात कोई मुसाफिर इधर से गुजरे तो उसे लगे की आस-पास कोई रहता है। क्या पता, वह उस समय किस ज़रूरत में हो? और, तुम सब तो जानते ही हो, मेरे लिए दिन क्या और रात क्या, रोशनी क्या और अँधेरा क्या। मैं तो अंधा हूँ।

Monday, October 22, 2007

भर पत्ता भोजन

एक आदमी काम की तलाश मी था.काम खोजते-खोजते वह एक किसान के यहाँ पहुंचा और उससे काम माँगा.किसान बडा दुष्ट था.उसे आदमी चाहिऐ था, मगर बिना पैसे खर्च किये.मुफ्त मी मिल जाए, फिर बाट ही क्या।
किसान ने आदमी से कहा की फिलहाल उसे काम के लिए आदमी की ज़रूरत नहीं है, लेकिन चूंकि वह इतनी दूर से आया है, इसलिए वह उसे काम पर रख लेगा और मजूरी में उसे रोजाना भर पत्ता भोजन दिया करेगा.आदमी गरीब था और उसे काम की ज़रूरत थी, इसलिए उसने किसान कहा मान लिया।
दूसरे दिन किसान ने उससे खूब काम करवाया.खाने के समां उसने इमली का पत्ता मंगाया और उसपर खाना परोसा.आदमी यह देखकर हैरान.किसान ने कहा की मैंने तुम्हे भर पत्ता भोजन देने की बाट कही थी। इसमें कमी होने पर बताओ.अब रोज ऐसा होने लगा.आदमी की जान निकालने लगी.उसने एक उपाय सोचा।
दूसरे दिन खानेके लिए बैठने पर उसने केले का पूरा पत्ता बिछाया। किसान उसमे थोडा सा भात परोस कर जाने लगा.आदमी ने कहा की आपने भर पत्ता भोजन देने की बाट कही है। अब आप इस पत्ते को भारी.वादे के मुताबिल किसान को यह करना पड़ा.आदमी के अब मेज़ हो गए.वह भर पेट खाता और बचा हुआ खाना गरीबों में बाँट देता.किसान को यह भारी पड़ने लगा। अंत में उसने आदमी से माफी मांगी और उसे सही पगार पर अपने यहाँ काम पर रख लिया.

Tuesday, October 2, 2007

व्यावहारिक ज्ञान

अलग अलग देशों के चार लडके पढने मे बडे तेज़ थे और हमेशा पढने मे यकीं रखते थे। इसलिए वे चारो काशी गए और उस समय के सबसे बडे गुरू से पढना आरम्भ किया। १२ साल तक पढने के बाद वे सभी अपने अपने देश की ओर लॉट चले। सभी विद्या पाने के अभिमान से चूर थे। इन सभी ने किताब्बी ज्ञान ख़ूब प्राप्य किया था, लेकिन जीवन के ज्ञान से ये सब कोसों दूर थे।
रास्ते मे इन सभी को कुछ हड्डियाँ इधर-उधर बिखरी मिली। ये सभी शास्त्रार्थ कराने लगे, यानी किताबी ज्ञान के आधार पर अपनी अपनी बाते बताने लगे। एक ने कहा, मैं हड्डी का जानकार हूं इसलिए दावे के साथ कह सकता हू की ये हड्दियाम, शेर की हैं। दूसरे ने कहा की मैं त्वचा का माहिर हूँ, इसलिए इसकी हड्डियों पर खाल चढ़ा सकता हू। तीसरे ने कहा की मैं आवाज़ का एक्सपर्ट हूँ, इसलिए इसे आवाज़ दे सकता हू। चौथे ने कहा की मैं पुनर्जीवन विद्या सीखी है इसलिए इसमें जान फूंक सकता हूँ।
सभी अपनी अपनी विद्या अजमाने लगे। पहले ने सभी हड्डियों को जोड़कर शेर का ढांचा खड़ा कर दिया। दूसरे ने उसपर खाल चढ़ा दी। तीसरे ने उसमें अव्वाज़ भर दी और चौथे ने उसमें जान फूंक दी। बस अब एक भयानक गर्जन के साथ शेर उठाकर खडा हुआ। वह बेहद भूखा था और अपने सामने इतने अच्छे शिकार को देख कर तुरंत उन पर टूट पड़ा और सभी को पाकर कर खा गया।
इसलिए कहा जाता है की जीवन में किताबी ज्ञान से बढ़कर व्यावहारिक ज्ञान ज़रूरी है।

Friday, September 28, 2007

फक फक और सक सक

एक बेहद आलसी आदमी था। बिना काम किये ही सारी सुख सुविध्हयें चाहता था, पर ऐसा नहीं होने के करण वह बहुत दुखी था। उसकी पत्नी उसके आलसी स्वभाव के कारण बहुत दुखी थी। एक दिन उसने जबरन उसे कमाने के लिए घर से बाहर भेज दिया।
चलते चलते वह आदमी एक किसान के घर पहुंचा। किसान का हलवाहा उसी दिन बीमार हो गया था और वह चिंता में था कि खेत कौन जोतेगा। उस आदमी ने किसान से काम माँगा और कहा कि वह हर काम कर सकता है, और करेगा। किसान यह सुनाकर बड़ा खुश हुआ। आदमी ने कहा कि उसकी बस केवल एक शर्त हाय कि वह दो हालातों में काम नहीं कर सकेगा, एक फक फक के समय और दूसरा सक सक के समय। किसान ने सोचा कि दो वक़्त काम ना करना कोई ऎसी मुश्किल बात नहीं है और अभी तो उसे आदमी की सख्त ज़रूरत भी ही। ऐसा सोचा कर उसने उस आदमी को काम पर रख लिया और कहा कि वह हल लेकर खेत पर चला जाये और खेत जोते। आदमी ने तुरंत कहा, मालिक, फक, फक। मतलब कि भूख लगी है। किसान भला आदमी था। उसने सोचा कि सच ही तो है, इतनी दूर से आया है, भूखा होगा ही। यह सोचकर उसने उसे खाना खिला दिया। खाना खा लेने के बाद किसान ने उससे फिर से खेत मे जाकर हल जोतने को कहा। आदमी ने फिर कहा, मालिक, सक सक। याने कि उसने अब इतना खा लिया है कि उसका पेट तन गया है और अब उसे आराम की ज़रुर्र्त है। किसान ने फिर सोचा कि सही है, इतनी दूर से आया है, थक गया होगा। एक दिन खेत मे हल नही ही चलेगा तो क्या हो जाएगा।
दूसरे दिन फिर से किसान ने उसे कम थमाया। काम थम्माते ही आदमी फिर बोला, मालिक, फक, फक। किसान ने फ़ॉर उसे खाना खिलाया और काम पर जाने को कहा। आदमी ने फिर कहा, मालिक, सक सक।
अब किसान परेशान हो गया। वह समझा गया कि यह आदमी किसी ही काम का नही है, इसके पीछ्हे पडे रहने से अपनी ही ताकात ख़त्म होगी, अपना ही जी जलेगा। और उसने सदा के लिए उस आदमी से छुट्टी पा ली.

Wednesday, September 12, 2007

लड़ाई के बहाने

एक औरत दिन-रात अपने पति से वज़ह खोज खोज कर लदा करती.उसकी लड़ाई से तंग आकर एक दिन पति ने कहा कि तू आखिर चाहती क्या है? औरत ने कहा कि वह उसे भरपेट खाना नहीं देता.आदमी ने कहा कि तू मुझसे ज़्यादा ख़ुराक ले ले और खुश रह।
आदमी सात सेर खाता था, जबकी औरत की ख़ुराक एक बार में चौदह सेर थी। आदमी ने उसे अपने लिए सात सेर और उसके लिए १४ सेर आता दे दिया। औरत ने सात सेर की सात रोटियाँ बनें और ओपन १४ सेर से केवल एक रोटी। आदमी जब काम पर से लौटा, तब उसने उसके आगे सातों रोटियाँ धर दीं.आदमी के खाने के बाद वह खाने बैठी।
दोनों का पेट भर गया था.औरत को आज दुगुना खाना मिला था, इसलिए अब वह खाने की बात को लेकर लड़ भी नहीं सकती थी.लड़ाई न होने से आज वह बड़ी बेचैन थी। अंत मेम उसने यह कहकर अपने पति को कोसना शुरू कर दिया कि उसने तो सात सेर की सात रोटियाँ खा लीं, जबकी वह उस घर की कुलावाद्हू है, मगर उसे केवल एक रोटी ही खाने को मिली.इस बात को उसने इसतरह से कहा- सात सेर की सात रोटी, चौदह सेर की एके , ई मुह्जरा सात गो खैलक, हम कुलवंती एके.यानी, जिसकी लड़ने की आदत होती है, वह बहाने खोज कर लड़ता है.

Friday, September 7, 2007

वारिस कौन?

एक राजा की चार बेटियाँ ही थीं.अब उन्हें उन्हीं में से अपना वारिस चुनना था.एक दिन उनहोंने अपनी चारो बेटियों को बुलाया और सभी को गेहूँ के सौ सौ दाने दिए और कहा कि वे इसका हिसाब पांच साल बाद मांगेंगे।
बड़ी बेटी ने अपने कमरे में लौटकर उन दानों को खिड़की से बह्हर यह सोचकर फेंक दिए कि पांच साल बाद जब वे इसे मांगेंगे तब वह भंडार में से लेकर राजा को दे देगी.दूसरी बहन ने उन दानो को चांदी की एक दब्बी में रखकर मखमल के थैले में रख दिया कि जब पिटा जी मांगेंगे, तब वह इसे दे देगी.तीसरी में बचपना ज़्यादा था.उसे गेहूँ के भुने दाने बहुत पसन्द थे। उसने उन दानों को भूनकर खा लिया। वह भूल भी गई कि राजा पांच साल बाद इसका हिसाब मांगेंगे।
सबसे छोटी राजकुमारी सोचती रही। उसे यह तो पता चल गया था कि राजा ने ये दाने कुछ सोचकर ही दिए होंगे.उसने अपने कमरे की खिड़की के पीछे वाली जमीन में उन दानों को बो दिया। समय पर अम्कुर फूटे, पौधे तैयार हुए, दाने निकले.राजकुमारी ने तैयार फसल में से दाने निकले और उसे फिर से बो दिया.इसतरह पांच सालों में उसके पास ढ़ेर साड़ी फसल तैयार हो गई।
पांह साल बाद राजा ने चारो बेटियों को बुलाया और उसे दाने मांगे। बड़ी ने भंडार से दाने लाकर दे दिए। दूसरी ने मखमल की दब्बी दे दी। दाने सभी सदाकर खोखले हो गाए थे। तीसरी ने कहा कि उसने दाने उसी समय भूनकर खा लिए थे। छोटी ने कहा कि दाने देखने के लिए उन्हें बाहर जाना होगा.रथ पर सवार होकर दोनों पिटा पुत्री खेत में पहुंचे। वहाँ खेत में फसल लहलहा रही थी। छोटी ने कहा- आपके दिए दाने अब यहाँ हैं। राजा ने उसे गले लगा लिया और कहा कि इस राज्य की सही वारिस तुम ही हो.

Wednesday, September 5, 2007

कथौतिया

नगर का साहूकार बड़ा धनी था, मगर उसकी एक भी संतान न थी.उसकी पत्नी भी बड़ी सुशील थी.मगर संतान न होने का दुख उसे भी खाए जा रहा था।

आखिरकार ईश्वर ने उसकी सुनी और समय आने पर उसने एक सुन्दर कन्या को जन्म दिया.उसके बाल इतने सुन्दर थे कि सभी ने उसका नाम सुकेशी रख दिया. विधाता का खेल कि कुछ ही दिन बाद उसकी पत्नी काल का शिकार हो गई.लोगों ने समझा-बुझा कर साहूकार का दूसरा ब्याह करवा दिया.सौतेली माता को सुकेशी फूटी आंखों न सुहाती.उसने सुकेशी के सुन्दर बाल कटवा कर उससे घर के सारे काम कराने लगी और खाने में रूखा सूखा देने लगी.बाप के मन में भी उसने सुकेशी के प्रति नफ़रत भर दी.इतने पर भी उसे संतोष नहीं हुआ तो उसने सुकेशी को मरवा कर उसे नदी किनारे दफ़ना दिया.किसी को कानोकान खबर न हुई।
सुकेशी को जहाँ दफ़नाया गया था, वहां एक अंकुर फूटा और धीरे धीरे वह एक सुन्दर पेड में बदल गया.एक नौजवान केवट को वह पेड इतना पसंद आया कि उसने उस पेड की दाल से एक नाव बनाई.वह नाव इतनी सुन्दर बनी कि न चाहते हुए भी लोगों का दिल उसमें बैठाने को करता.युवक का धंधा चल निकला।
युवक का घर नदी किनारे ही था,जहाँ वह अपनी माँ के साथ रहता था.एक दिन सुबह सोकर उठाने पर दोनों ने पाया कि घर साफ है, खाना बना हुआ है.फिर तो रोज-रोज ऐसा ही होने लगा.युवक ने इसका पता लगाने की ठानी।
आधी रात बीतने पर उसने देखा कि नाव में से काले,घने,लंबे बलोंवाली एक सुन्दर युवती निकली.नाव रूपी लबादा उसने एक किनारे रख दिया और घर के सारे काम निपटाने लगी। काम खत्म होने के बाद उसने अपना नावावाला चोगा पहना और काली गई.युवक का मन उस युवती पर आ गया। उसने एक दिन देखा, दो दिन देखा, तीसरे दिन उसने रात में अपने घर के सामने एक घूरा जलवा दिया.पिछले दिनों की तरह ही युवती नाव में से निकली और घर के काम कराने लगी.मौक़ा देखकर युवक ने नाव रूपी चोगा घूर में डलवा दिया.काम कराने के बाद जाने के समय जब वह चोगा खोजने लगी तब उसे वह न मिला। वह घबडा गई। युअवक बाहर आया और रास्ता रोककर पूछने लगा कि सच-सच बताये कि वह कौन है?युवती ने उसे अपनी सारी कहानी कह सुनाई.युवक पहले से ही उसे चाहने लगा था। उसने उससे पूछा कि क्या वह उससे शादी करेगी? सुकेशी लजा गयी।
सुस्बाह हो गई थी.माँ की नींद खुल चुकी थी। बेटे को एकानुपम सुन्दर लड़की के साथ बात करते देखकर वह अचरज में पद गयी.बेटे ने कहा कि यही है काठ की वह कथौतिया, जो अब उसके घर की बहू बनाकर रहेगी। इतनी सुन्दर और सुशील बहू पाकर माँ का मन खुशी से झूम उठा.उसने कहा- "कैसी कथौतिया? उसका वह रूप तो उस काथा के साथ जल गया। अब तो यह मेरी प्यारी सुकेशी रानी है."तो जैसे उसके भग फायर, वैसे ही सबके फिरें। यह है इस कथा का सार.

Monday, September 3, 2007

कौअहंक्नी

एक रजा कि सात रानियाँ थीं, मगर सन्तान एक भी नहीं.राजा अपना वारिस न मिलने से दुःखी थे.आखिर में खुशी का समय आया जब छोटी रानी गर्भवती हुई.बाकी छहों रानियों के कलेजे पर सांप लोटने लगे कि अब तो राजा छोटी रानी को ही पूछेंगे।
प्रसव का दिन नजदीक अने पर राजा एक दिन शिकार खेलने गए.छोटी रानी के महल पर एक घंटा लगवा दिया कि जब प्रसव का समय आये तो वह घंटा बजा दे.राजा आ जायेंगे।
राजा के जाएँ के बाद छहों रानियाँ छोटी रानी के पास पहुंची और बोली- बच्चा ऐसे थोड़े न जना जाता है.सर ऊखाल और धड़ चूल्हे में रखने से चांद जैसा बेटा होता है।
रानी ने दो सुन्दर बच्चों को जन्म दिया- एक बेटा और एक बेटी.सभी रानियों ने बच्चों को मरवाकर महल के पिछवाडे गार दिया और घंटी बजा दी.घंटी कि आवाज़ सुनाकर राजा खुशी में झूमता महल पहुँचा.रानियों ने ईंट पत्थर के ढ़ेर दिखाए और कह कि छोटी रानी ने यही जना है.ग़ुस्से में राजा ने छोटी रानी के नाक कान कटा कर उसे कावा उड़ने के काम पर लगा दिया। वह तबसे कौवाहंक्नी कहलाने लगी.खाने मे उसे एक कटोरी मदुआ दिया जाता।
इधर महल के पिछवाडे में दो सुन्दर पौधे निकल आए.वे बडे हुए और उनमें सुन्दर सुन्दर फूल खिले.वे इतने सुन्दर थे कि हर कोई उसे तोड़ने को मचल उठता.लेकिन जैसे ही कोई उन्हें तोड़ने जाता, वे काफी ऊंचाई पर चले जाते.सभी इसकी चर्चा कराने लगे.राजा ने भी सुना.उसने अपने द्वारपाल को भेजा.लेकिन पौधों से तो गीत बजाने लगा-
बैरिन भेल छाओ रानी, राजा भेल आन्हर हे,
हमरा मराओल, घूर फेंकाओल, माय कौअहंक्नी बनाओल हे
द्वारपाल ने सारा हाल राजा से कहा.अब राजा खुद गए.वाही बात.छहों रानी को बुलाया.वाही बात.अंत में छोटी रानी को बुलाया.जय्से ही छोटी रानी ने फूल तोड़ने कि लिए हाथ बढ़ाया, फूल उसकी गोद मे आ गिरे.पागल कि तरह छोटी रानी ज़मीन कोरने लगी। थोरी ही देर में उसमें से चांद सूरज जैसे दोनो बच्चे निकल आये.छोटी रानी ने दोनों को गले लगा लिया।
राजा साड़ी बात समझ गया.उसने छहों रानियों को करी सज़ा दी और छोटी रानी से अपने किये की माफी मांगी.बच्चों को गले लगायौर सबको लेकर महल आ गए.कहते हैं, जैसे रानी औए बच्चो के भाग फायर, वैसे ही सबके फिरें.मगर जैसी रानी की दुर्गति हुई, वैसी किसी की ना हो और राजा जैसा इन्सान भी क्रोध में अपना विवेक ना खोये.

Thursday, August 30, 2007

लोक कथाएं हमारी संस्कृति व इतिहास से जुडी हुई है.मैथिलि भाषा में लोककथाओं कि समृद्ध परम्परा है.हमारे पूर्वजों ने इस मौखिक परम्परा को विक्सित किया था.अपने बचपन में मुझे भी इन कथाओं को सुनने का अवसर मिल.मिथिला की होने के नेट मेरा यह कर्तव्य है कि मैं इन कथाओं को लिखूं.ये कथाएं मेरे संग्रह मिथिला की लोककथाएँ से ली जा रही हैं.मेरा प्रयास होगा कि मैं इन्हें आपके लिए प्रस्तुत करुं ताकि आप भी इनका आनन्द ले सकें और अपने बच्चों को भी सुना सकें.मेरे इस प्रयास पर अपके विचारों व टिप्पणियों की प्रतीक्षा रहेगी। - विभा रानी

Wednesday, August 29, 2007

बैगन और मूली

(बैगन और मूली)
एक किसान का खेत काफी बड़ा था। खेत के एक भाग मे उसने तरह तरह की सब्जियाँ लगा रखी थीं । अपने पडोसियों को भि वह अपने खेत की सब्जियाँ भेजा करता ।
एक बार उसने अपने यहाँ पूजा रखवाई और पूरे गांव को खाने का न्यौता दिया । किसान के खेत मे बैंगन और मूली लगे हुए थे। दोनों में लड़ाई वाली दोस्ती थी । यानी दोनों लो बिना बतियाए चैन भी नहीं मिलता और बतियाने पर बिना लडाई के गुजर भी नहीं होती ।
तो उस दिन फिर दोनों टूल पडे । बैगन जमीं के ऊपर रहने के कारन उपरको कहलाता और मूली ज़मीं के निस रहने के कारन तरको.किसान के घर की हलचल देख बैगन ने मूली से कहा- हे तरको? मूली ने जावाब दिया- की हे उपरको? आज गाँव मे बड़ी हलचल है।
मूली ने कहा- अपने लिए झख.तुझे तो लोग आएंगे, चट से तोदेंगे, पत् से काटेंगे, और पका कर खा जएंगेमेरे लिए तो लोग आवेंगे, मेरे पास बैठेंगे, खुरपी से ज़मीं कोरेंगे, मुझे निकालेंगे, तालाब में ले जायेंगे, धोएँगे, पोछेंगे, छिलेंगे, काटेंगे, तब तो खायेंगे.इसे कहते हैं अपने मुंह मियां मिट्ठू.

Monday, August 27, 2007

तिलिया और चवलिया (मिथिला की लोक कथा )

तिलिया जब सोइरी में ही थी , जब उसकी माँ चल बसी.मरद की जाट । औरत को बिसरते और दुसरा घर बसते देर लगाती है क्या.सो तिलिया के बाप ने भी दुसरी शादी कर ली।
नयी माँ को तिलिया फूटी आखों भी ना सुहाती। कई बार उसने उसे जान से मार् डालने की भी कोशिश की। पर बेटी जाट । इतनी जल्दी मरे भला ।
कुछ दिन बद उसकी नयी माँ ने भी एक बेटी को जन्म दिया। जब दोनों बेटियाँ थोड़ी बडी हुई, तब उसने अपनी बेटी को बारह साल के लिए चावल की कोठी और सौतेली बेटी को तिल की कोठारी में दाल दिया। उसका सोचना था की बारह सल् बद चावल की कोठी से उसकी बेटी चावल जेसी ही सफ़ेद और होकर निअलेगी, जबकी दुसरी तिल जायसी कली और बदसूरत ।
बारह बरस के बद उसनस पास के सभी नगरों से सुन्दर , धनी और जवान लडके बुलाए ताकी सबसे सुन्दर और धनी के साथ वह शादी कर सके । उसने पास के गाँव से एक भिखारी को भी बुलवाया, जिससे की दुसरी की शादी उसके साथ की जा सके।
अखिर इंतजार की घरी ख़त्म हुई। कोठी के दरवाजे खुले। दोनों बेटियों को देखकर वह बेहोश हो गई। तिल की कोठी से निकली बेटी तिलोत्तमा जायसी सुन्दर थी, जबकी चावल की कोठी से निकली बेटी हड्डियों का ढांचा। उसे देखकर भिखारी भी मुँह फेरकर काला गया, जबकी सबसे सुन्दर , खुबसुरत और धनी लडके ने तिलोत्तमा जायसी सुदर लडकी से शादी कर ली।