
मिथिला में भाईदूज के अवसर पर कही जानेवाली कथा-
सात भाइयों के बीच की दुलारी बहन -सोनचिरई। बड़ी सुन्दर, बड़ी नटखट। सातो भाई परदेस कमाने गए। सोनचिरई को भाभियों के हवाले किया और सख्त ताकीद की की उसे कोई कष्ट न पहुंचे। जो लौटने पर उन्हें इसका पता चला तो उन्हें जिंदा खौलते तेल में झोंक दिया जाएगा।
सातो भाई परदेस गए और इधर भाभियों के उत्पात शुरू। बड़ी ने कहा, बिना ऊखल मूसल के धान के चावल बना ला। जो एक भी चावल कमा तो जलती लकडी से दागूंगी।
सोनचिरई क्या करे? तभी चिडियों का एक झुंड आया और उन्होने मिलकर सभी धान का चावल बना दिया। एक कानी चिडिया ने एक चावल चुरा लिया। भाभी ने गिना तो एक चावल कम। बस लगी जलती लकडी से दागने। रोती सोनचिरई फिर वापस लौटी। कानी चिडिया ने दाना लौटा दिया।
दूसरी बोली- जा, छन्नी में पानी भरकर ला। एक बूँद पानी बाहर नहीं गिरना चाहिए। नदी किनारे जाकर सोनचिरई फिर रोने लगी। नदी से काई निकल कर छन्नी की तह में जाकर बैठ गई।
तीसरी ने कहा- बिना बन्धन के जंगल से लकडी काटकर ला। जंगल में सोनचिरई ने लकडी जमा तो कर ली, लेकिन ले कैसे जाए? तभी एक सांप आया और बोला," तुम मुझसे लकडी बाँध लो। बस, लकडी नीचे रखते समय धीरे से रखना। मैं आस्ते से निकल जाऊंगा।
सोनचिरई भाभी के पल्ले नहीं पड़ रही थी। वे सभी परेशान थीं। केवल सबसे छोटी भाभी उसे कुछ न कहती, बल्कि सभी से छुपाकर वही उसे खाना पीना भी देती।
बारह बरस बीतने को आए। भाभी के अत्याचार का कोई अंत नहीं था। एक ने कहा, जा नदी किनारे और इस काले कम्बल को सफ़ेद कर ला। जबतक कम्बल सफ़ेद न हो जाए, तबतक घर मत लौटना। नदी किनारे पहुंचकर सोनचिरई फूट-फूटकर रोने लगी- भाई कब लौटेंगे, कब उसके दुःख दूर होंगे। वह कम्बल धोती जाती, और रोती रोती कहती जाती- ' सातो भैया गेल परदेस, सोनचिरई के दुःख दैयो गेल"
बारह बरस पूरे हो रहे थे। भाई भी अब परदेस से लौट रहे थे। एक ने कहा- ' भाई रे, आवाज से तो लगता है, अपनी सोनचिरई है।' दूसरे ने कहा, 'ऐसा कैसे हो सकता है? हमने तो उसे लाड प्यार से रखने को कहाथा।" बडे भाई ने आवाज़ साधकर तीर फेंका। तीर सोनचिरई के पैर के पास आकर गिरा। वह तीर पहचान कर और भी जोर जोर से रोने लगी। भाई भी जल्दी -जल्दी वहाँ तक पहुंचे। सोनचिरई की हालत देख कर सब समझ गए। बडे भाई ने सोनचिरई को अपनी जांघ में छुपा लिया और सभी घर पहुंचे।
सभी भाभियाँ अगवानी को दौडीं। लेकिन भाइयों ने कहा कि वे पहले सोनचिरई से मिलेंगे। सभी टालमटोल करने लगीं। बडे भाई ने जांघ के भीतर से सोनचिरई को निकाला। उन्होंने भट्ठी खुदवाई, बडे कडाह में तेल गरम करवाया और सभी को उसमे से पार जाने को कहा। सभी आती गई और कहती गईं- ताई, ताई, ताई, जिन ननद सताई, तिनी ताई में भुजाई, न तो पार उतराई। एक -एक कर छहों भाभी कडाह में उतरती गई और उसमें भस्म होती गई। केवल सबसे छोटी भाभी सकुशल कडाह के पार उतर गई। सातो भाई और सोनचिरई सुख से रहने लगे। भाभी जैसी बुद्धि किसी की न हो और सोनचिरई के भाईई जैसे सभी के भाई हों।
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