टहलते हुए आइए, सोचते हुए जाइए.

Wednesday, November 7, 2007

रोशनी का धर्म

एक बूढा आदमी था। वह बहुत गरीब था। मगर दिल का बहुत नेक था। वह रोज दिन शाम होते ही अपनी एक लालटेन जलाता और उसे अपने घर के सामने के पेड़ पर टांग देता। उसकी यह लालटेन कहते हैं की बहुत पुरानी थी। लेकिन वह उसे हमेशा सहेज कर, साफ सुथरा करके रखता। उसके शीशे भी इतने साफ रहते की एकदम नए जैसे दिखते। बारिश या आंधी-तूफान में वह उसे अपने घर की खिड़की पर रख देता। घर की खिड़की बंद कर देता, मगर उसके बाद भी खिड़की से रोशनी बाहर तक पहुँचती रहती।
लोगों को उसका यह काम नहीं सुहाता. सभी उसका मजाक उडाते। सभी उसे कहते की पगला गरीब बुड्ढा न जाने क्यों अपने पैसे बर्बाद करने पर तुला रहता है। वह तो अकेला रहता है। तो शाम होते ही खा पीकर वह सो क्यों नहीं जाता। इससे लालटेन के तेल का खर्चा भी बचेगा और उसकी मेहनत भी।
एक दिन एक आदमी से न रहा गया। वह उसके पास गया और यही बात उससे कही। बूढा गंभीर हो गया। थोडी देर वह चुप रहा। फिर धीरे- धीरे उसने कहा- यह रोशनी मुझे अपने लिए नहीं चाहिए। मैं तो इसे इसलिए जला कर रखता हूँ की रात-बेरात कोई मुसाफिर इधर से गुजरे तो उसे लगे की आस-पास कोई रहता है। क्या पता, वह उस समय किस ज़रूरत में हो? और, तुम सब तो जानते ही हो, मेरे लिए दिन क्या और रात क्या, रोशनी क्या और अँधेरा क्या। मैं तो अंधा हूँ।

1 comment:

Tarun said...

bahut sunder katha,