टहलते हुए आइए, सोचते हुए जाइए.

Tuesday, February 17, 2009

सहारा

एक बार शारीरिक व् मानसिक रूप से अपांग बच्चों के लिए १०० मीटर दौड़ की स्पर्धा आयोजित की गई। ११-१२ बच्चे उसमें शामिल होने के लिए आए। बन्दूक दागकर स्पर्धा की शुरुआत की गई। सभी बच्चे दौड़ पड़े। उनमें से एक बच्चा गिर गया। फ़िर वह किसी तरह उठा और दौड़ने लगा। कुछ दूर जाने के बाद वह फ़िर से गिर गया। फ़िर वह हिम्मत करके उठा और दौड़ने लगा। कुछ दूर तक दौड़ने के बाद फ़िर से वह गिर पडा। अबकी वह उठ नहीं सका और जोर-जोर से रोने लगा। उसके रोने की आवाज़ आने पर दौड़ते हुए सभी बच्चे एक बारगी रुक गए। उन सबने आवाज़ की तरफ़ नज़र घुमाई। वे कुछ तय नहीं कर पाये की क्या करना चाहिए की तभी इंस्ट्रक्टर की सीती बजी और वे सभी दौड़ पड़े। मगर मानसिक रूप से अपांग एक बच्ची उस बच्चे तक आई। उसने उस बच्चे का हाथ थामा और हाथ पकड़कर उसे उठाया। फ़िर वह उसका हाथ पकरकर उस बच्चे की गति से दौड़ने लगी और अन्तिम पड़ाव तक उस बच्चे के साथ दौड़ती वहाँ पहुँची। इस बीच उसने एक बार भी उस बच्चे का हाथ नहीं छोडा। दर्शक दीर्घा से देख राझे दोनों ही बच्चों के माता- पिटा की आंखों से आंसू की अविरल धार बह रही थी।

2 comments:

मुंहफट said...

विभा जी, मार्मिक लघुकथा जैसी घटना है. काश, थोड़ा और विस्तार से लिखा गया होता. दरअसल हमने आज दुनिया को उस मोकाम तक पहुंचा दिया है, जहां सिर्फ भगदड़ बाकी बची है. हर कोई भाग रहा है. कोई आगे निकल जा रहा है. कोई छूट जा रहा है. कोई गिर जा रहा है. जो गिर जाता है, उस पर लोगों को दया आती है. मन गीला हो जाता है, आंखें भीग जाती हैं. अक्सर ही ऐसा हो जाया करता है. मन-आंखें भीग जाती है. हृदय भर उठता है. वात्सल्य छलछक उटता है. मनुष्यता ऐसा होने के लिए मन को विवश कर देती है. ऐसा होना नहीं चाहिए. हमारी भागती दुनिया में लाखों अपंग बच्चे ऐसे भी हैं, जिन्हें भोजन और वस्त्र तक मयस्सर नहीं. स्कूल और हरे-भरे पार्क तो बहुत दूर की बात है. ऐसे बच्चों की माताओं को भी लोरियां सुनाने की फुर्सत नहीं. वे बस जीते रहने के लिए या बड़े होकर भागती दुनिया में दुत्कारे जाने के लिए पैदा होते हैं. राज्य, विदेशी फंडिंग पर जीवन यापन कर रहे एनजीओ, राजनेता, धनाढ्य सब उनकी ओर से आंखे मूंदे हुए हैं. उन पर धर्म की भी बस इतनी सी कृपा है कि धर्मस्थलों या नदी के घाटों पर कटोरा लेकर उन्हें पांत में बैठा दिया जाता है. जो बच्चे अमीर घरों में मुंह में चांदी का चम्मच लेकर जनमते हैं, उनकी जिंदगियां जरूर थोड़ी आसान हो जाती हैं. आपकी संक्षिप्त प्रस्तुति पर पुनः बधाई.

Udan Tashtari said...

अति मार्मिक-गहरे संवेदनशील भाव हैं इस रचना के. बस, पढ़कर विचारों में डूब गया हूँ.