टहलते हुए आइए, सोचते हुए जाइए.

Saturday, March 8, 2008

सूरजमुखी

आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस है। स्त्री की ताक़त, उसके स्वाभिमान की मिसाल मुझे अपनी मिथिला की लोक कथा में मिली। आपके लिए प्रस्तुत है यह कथा।
माता-पिता की दुलारी सूरजमुखी जब बड़ी हुई तब उसके माता- पिता ने धूम धाम से उसका ब्याह किया। दूल्हा एकदम सूरजमुखी के योग्य। विदा होकर सूरजमुखी अपनी ससुराल आई। उसके घर के पिछवाडे लौंग का पेड़ था। उससे चूते लौंग के फूल की भीनी भीनी खुशबू से मन सराबोर रहता।
कोहबर की रात। लौंग चुन चुन कर उससे सेज सजाई गई। सूरजमुखी व उसका वर, दोनों ही अपने अपने माता-पिता के दुलारे, एल-फ़ैल से सोने के आदी। दूल्हे ने सूरजमुखी से कहा- "आसुर घसकू, आसुर घसकू, सासू जी के बेटिया, कसमस मोहे ना सोहाए।" पहली ही रात और ऐसे अपमान जनक शब्द सुनकर सूरजमुखी क्रोध से लाल हो उठी। तुरंत वह अपने घर के लिए रवाना हो गई। जब पति से ही ऐसा अपमान तब बाकियों को वह कैसे सुहाएगी? इससे तो अच्छा अपना घर है न।
आहत सूरजमुखी नैनों मे आंसुओं का समंदर भरे चल पडी। रास्ते में एक नदी पड़ती थी। उसने मल्लाह को बुलाया- "नैया लाहू, नैया लाहू, भइया रे मलाहबा। झटपट पार उतारू हो।"
मल्लाह बोला- "नदी उफनी पडी है, ऐसे में पार उतरना खतरनाक होगा। इसलिए "आज की रातिया बहिनी एतही गमाहू, भोर उतारब पार हू। दिने खियैब बहिना चेल्हबा मछलिया, रात ओधैबो महाजाल हो."
सूरजमुखी सुनते ही गुस्से से लाल हो उठी । एक मल्लाह की इतनी बड़ी हिम्मत कि वह उससे इस तरह से बात करे? " अगिया लागैब मलाहा चेल्हबा मछलिया, बजरे खासिबो महाजाल हो। चाँद -सुरुज जैसन अपन स्वामी तेजलाहूँ, मलाहा के कोण बिसबास हो।"
इधर दूल्हे राजा को भी अपनी गलती का अहसास हुआ। अब वह अकेला नही है। बड़ा भी हो गया है। आपसी समझदारी व एक दूसरे के प्रति मान- सम्मान से ही घर गिरस्थी और दीन दुनिया चलती है।
तीन नाव लेकर वह चल पडा अपनी सूरजमुखी को मनाने- "एके नैया आबे ले आजान-बाजन, दोसर नैया आबे बरियत हो, तेसर नैया आबे ले दुलहा सुन्दर दुल्हा, लाडो ले गिलेमनाये हो।"
और इस तरह से सूरजमुखी ने अपने मान व स्वाभिमान की रक्षा की और फ़िर अपने पति के पास गई।
सच है, मान - सम्मान मिलता नहीं, उसे हासिल करना होता है।

2 comments:

mehek said...

sundar katha

अजय कुमार झा said...

kahni ne dil ko chhoo liya. achha laga.