टहलते हुए आइए, सोचते हुए जाइए.

Friday, September 28, 2007

फक फक और सक सक

एक बेहद आलसी आदमी था। बिना काम किये ही सारी सुख सुविध्हयें चाहता था, पर ऐसा नहीं होने के करण वह बहुत दुखी था। उसकी पत्नी उसके आलसी स्वभाव के कारण बहुत दुखी थी। एक दिन उसने जबरन उसे कमाने के लिए घर से बाहर भेज दिया।
चलते चलते वह आदमी एक किसान के घर पहुंचा। किसान का हलवाहा उसी दिन बीमार हो गया था और वह चिंता में था कि खेत कौन जोतेगा। उस आदमी ने किसान से काम माँगा और कहा कि वह हर काम कर सकता है, और करेगा। किसान यह सुनाकर बड़ा खुश हुआ। आदमी ने कहा कि उसकी बस केवल एक शर्त हाय कि वह दो हालातों में काम नहीं कर सकेगा, एक फक फक के समय और दूसरा सक सक के समय। किसान ने सोचा कि दो वक़्त काम ना करना कोई ऎसी मुश्किल बात नहीं है और अभी तो उसे आदमी की सख्त ज़रूरत भी ही। ऐसा सोचा कर उसने उस आदमी को काम पर रख लिया और कहा कि वह हल लेकर खेत पर चला जाये और खेत जोते। आदमी ने तुरंत कहा, मालिक, फक, फक। मतलब कि भूख लगी है। किसान भला आदमी था। उसने सोचा कि सच ही तो है, इतनी दूर से आया है, भूखा होगा ही। यह सोचकर उसने उसे खाना खिला दिया। खाना खा लेने के बाद किसान ने उससे फिर से खेत मे जाकर हल जोतने को कहा। आदमी ने फिर कहा, मालिक, सक सक। याने कि उसने अब इतना खा लिया है कि उसका पेट तन गया है और अब उसे आराम की ज़रुर्र्त है। किसान ने फिर सोचा कि सही है, इतनी दूर से आया है, थक गया होगा। एक दिन खेत मे हल नही ही चलेगा तो क्या हो जाएगा।
दूसरे दिन फिर से किसान ने उसे कम थमाया। काम थम्माते ही आदमी फिर बोला, मालिक, फक, फक। किसान ने फ़ॉर उसे खाना खिलाया और काम पर जाने को कहा। आदमी ने फिर कहा, मालिक, सक सक।
अब किसान परेशान हो गया। वह समझा गया कि यह आदमी किसी ही काम का नही है, इसके पीछ्हे पडे रहने से अपनी ही ताकात ख़त्म होगी, अपना ही जी जलेगा। और उसने सदा के लिए उस आदमी से छुट्टी पा ली.

Wednesday, September 12, 2007

लड़ाई के बहाने

एक औरत दिन-रात अपने पति से वज़ह खोज खोज कर लदा करती.उसकी लड़ाई से तंग आकर एक दिन पति ने कहा कि तू आखिर चाहती क्या है? औरत ने कहा कि वह उसे भरपेट खाना नहीं देता.आदमी ने कहा कि तू मुझसे ज़्यादा ख़ुराक ले ले और खुश रह।
आदमी सात सेर खाता था, जबकी औरत की ख़ुराक एक बार में चौदह सेर थी। आदमी ने उसे अपने लिए सात सेर और उसके लिए १४ सेर आता दे दिया। औरत ने सात सेर की सात रोटियाँ बनें और ओपन १४ सेर से केवल एक रोटी। आदमी जब काम पर से लौटा, तब उसने उसके आगे सातों रोटियाँ धर दीं.आदमी के खाने के बाद वह खाने बैठी।
दोनों का पेट भर गया था.औरत को आज दुगुना खाना मिला था, इसलिए अब वह खाने की बात को लेकर लड़ भी नहीं सकती थी.लड़ाई न होने से आज वह बड़ी बेचैन थी। अंत मेम उसने यह कहकर अपने पति को कोसना शुरू कर दिया कि उसने तो सात सेर की सात रोटियाँ खा लीं, जबकी वह उस घर की कुलावाद्हू है, मगर उसे केवल एक रोटी ही खाने को मिली.इस बात को उसने इसतरह से कहा- सात सेर की सात रोटी, चौदह सेर की एके , ई मुह्जरा सात गो खैलक, हम कुलवंती एके.यानी, जिसकी लड़ने की आदत होती है, वह बहाने खोज कर लड़ता है.

Friday, September 7, 2007

वारिस कौन?

एक राजा की चार बेटियाँ ही थीं.अब उन्हें उन्हीं में से अपना वारिस चुनना था.एक दिन उनहोंने अपनी चारो बेटियों को बुलाया और सभी को गेहूँ के सौ सौ दाने दिए और कहा कि वे इसका हिसाब पांच साल बाद मांगेंगे।
बड़ी बेटी ने अपने कमरे में लौटकर उन दानों को खिड़की से बह्हर यह सोचकर फेंक दिए कि पांच साल बाद जब वे इसे मांगेंगे तब वह भंडार में से लेकर राजा को दे देगी.दूसरी बहन ने उन दानो को चांदी की एक दब्बी में रखकर मखमल के थैले में रख दिया कि जब पिटा जी मांगेंगे, तब वह इसे दे देगी.तीसरी में बचपना ज़्यादा था.उसे गेहूँ के भुने दाने बहुत पसन्द थे। उसने उन दानों को भूनकर खा लिया। वह भूल भी गई कि राजा पांच साल बाद इसका हिसाब मांगेंगे।
सबसे छोटी राजकुमारी सोचती रही। उसे यह तो पता चल गया था कि राजा ने ये दाने कुछ सोचकर ही दिए होंगे.उसने अपने कमरे की खिड़की के पीछे वाली जमीन में उन दानों को बो दिया। समय पर अम्कुर फूटे, पौधे तैयार हुए, दाने निकले.राजकुमारी ने तैयार फसल में से दाने निकले और उसे फिर से बो दिया.इसतरह पांच सालों में उसके पास ढ़ेर साड़ी फसल तैयार हो गई।
पांह साल बाद राजा ने चारो बेटियों को बुलाया और उसे दाने मांगे। बड़ी ने भंडार से दाने लाकर दे दिए। दूसरी ने मखमल की दब्बी दे दी। दाने सभी सदाकर खोखले हो गाए थे। तीसरी ने कहा कि उसने दाने उसी समय भूनकर खा लिए थे। छोटी ने कहा कि दाने देखने के लिए उन्हें बाहर जाना होगा.रथ पर सवार होकर दोनों पिटा पुत्री खेत में पहुंचे। वहाँ खेत में फसल लहलहा रही थी। छोटी ने कहा- आपके दिए दाने अब यहाँ हैं। राजा ने उसे गले लगा लिया और कहा कि इस राज्य की सही वारिस तुम ही हो.

Wednesday, September 5, 2007

कथौतिया

नगर का साहूकार बड़ा धनी था, मगर उसकी एक भी संतान न थी.उसकी पत्नी भी बड़ी सुशील थी.मगर संतान न होने का दुख उसे भी खाए जा रहा था।

आखिरकार ईश्वर ने उसकी सुनी और समय आने पर उसने एक सुन्दर कन्या को जन्म दिया.उसके बाल इतने सुन्दर थे कि सभी ने उसका नाम सुकेशी रख दिया. विधाता का खेल कि कुछ ही दिन बाद उसकी पत्नी काल का शिकार हो गई.लोगों ने समझा-बुझा कर साहूकार का दूसरा ब्याह करवा दिया.सौतेली माता को सुकेशी फूटी आंखों न सुहाती.उसने सुकेशी के सुन्दर बाल कटवा कर उससे घर के सारे काम कराने लगी और खाने में रूखा सूखा देने लगी.बाप के मन में भी उसने सुकेशी के प्रति नफ़रत भर दी.इतने पर भी उसे संतोष नहीं हुआ तो उसने सुकेशी को मरवा कर उसे नदी किनारे दफ़ना दिया.किसी को कानोकान खबर न हुई।
सुकेशी को जहाँ दफ़नाया गया था, वहां एक अंकुर फूटा और धीरे धीरे वह एक सुन्दर पेड में बदल गया.एक नौजवान केवट को वह पेड इतना पसंद आया कि उसने उस पेड की दाल से एक नाव बनाई.वह नाव इतनी सुन्दर बनी कि न चाहते हुए भी लोगों का दिल उसमें बैठाने को करता.युवक का धंधा चल निकला।
युवक का घर नदी किनारे ही था,जहाँ वह अपनी माँ के साथ रहता था.एक दिन सुबह सोकर उठाने पर दोनों ने पाया कि घर साफ है, खाना बना हुआ है.फिर तो रोज-रोज ऐसा ही होने लगा.युवक ने इसका पता लगाने की ठानी।
आधी रात बीतने पर उसने देखा कि नाव में से काले,घने,लंबे बलोंवाली एक सुन्दर युवती निकली.नाव रूपी लबादा उसने एक किनारे रख दिया और घर के सारे काम निपटाने लगी। काम खत्म होने के बाद उसने अपना नावावाला चोगा पहना और काली गई.युवक का मन उस युवती पर आ गया। उसने एक दिन देखा, दो दिन देखा, तीसरे दिन उसने रात में अपने घर के सामने एक घूरा जलवा दिया.पिछले दिनों की तरह ही युवती नाव में से निकली और घर के काम कराने लगी.मौक़ा देखकर युवक ने नाव रूपी चोगा घूर में डलवा दिया.काम कराने के बाद जाने के समय जब वह चोगा खोजने लगी तब उसे वह न मिला। वह घबडा गई। युअवक बाहर आया और रास्ता रोककर पूछने लगा कि सच-सच बताये कि वह कौन है?युवती ने उसे अपनी सारी कहानी कह सुनाई.युवक पहले से ही उसे चाहने लगा था। उसने उससे पूछा कि क्या वह उससे शादी करेगी? सुकेशी लजा गयी।
सुस्बाह हो गई थी.माँ की नींद खुल चुकी थी। बेटे को एकानुपम सुन्दर लड़की के साथ बात करते देखकर वह अचरज में पद गयी.बेटे ने कहा कि यही है काठ की वह कथौतिया, जो अब उसके घर की बहू बनाकर रहेगी। इतनी सुन्दर और सुशील बहू पाकर माँ का मन खुशी से झूम उठा.उसने कहा- "कैसी कथौतिया? उसका वह रूप तो उस काथा के साथ जल गया। अब तो यह मेरी प्यारी सुकेशी रानी है."तो जैसे उसके भग फायर, वैसे ही सबके फिरें। यह है इस कथा का सार.

Monday, September 3, 2007

कौअहंक्नी

एक रजा कि सात रानियाँ थीं, मगर सन्तान एक भी नहीं.राजा अपना वारिस न मिलने से दुःखी थे.आखिर में खुशी का समय आया जब छोटी रानी गर्भवती हुई.बाकी छहों रानियों के कलेजे पर सांप लोटने लगे कि अब तो राजा छोटी रानी को ही पूछेंगे।
प्रसव का दिन नजदीक अने पर राजा एक दिन शिकार खेलने गए.छोटी रानी के महल पर एक घंटा लगवा दिया कि जब प्रसव का समय आये तो वह घंटा बजा दे.राजा आ जायेंगे।
राजा के जाएँ के बाद छहों रानियाँ छोटी रानी के पास पहुंची और बोली- बच्चा ऐसे थोड़े न जना जाता है.सर ऊखाल और धड़ चूल्हे में रखने से चांद जैसा बेटा होता है।
रानी ने दो सुन्दर बच्चों को जन्म दिया- एक बेटा और एक बेटी.सभी रानियों ने बच्चों को मरवाकर महल के पिछवाडे गार दिया और घंटी बजा दी.घंटी कि आवाज़ सुनाकर राजा खुशी में झूमता महल पहुँचा.रानियों ने ईंट पत्थर के ढ़ेर दिखाए और कह कि छोटी रानी ने यही जना है.ग़ुस्से में राजा ने छोटी रानी के नाक कान कटा कर उसे कावा उड़ने के काम पर लगा दिया। वह तबसे कौवाहंक्नी कहलाने लगी.खाने मे उसे एक कटोरी मदुआ दिया जाता।
इधर महल के पिछवाडे में दो सुन्दर पौधे निकल आए.वे बडे हुए और उनमें सुन्दर सुन्दर फूल खिले.वे इतने सुन्दर थे कि हर कोई उसे तोड़ने को मचल उठता.लेकिन जैसे ही कोई उन्हें तोड़ने जाता, वे काफी ऊंचाई पर चले जाते.सभी इसकी चर्चा कराने लगे.राजा ने भी सुना.उसने अपने द्वारपाल को भेजा.लेकिन पौधों से तो गीत बजाने लगा-
बैरिन भेल छाओ रानी, राजा भेल आन्हर हे,
हमरा मराओल, घूर फेंकाओल, माय कौअहंक्नी बनाओल हे
द्वारपाल ने सारा हाल राजा से कहा.अब राजा खुद गए.वाही बात.छहों रानी को बुलाया.वाही बात.अंत में छोटी रानी को बुलाया.जय्से ही छोटी रानी ने फूल तोड़ने कि लिए हाथ बढ़ाया, फूल उसकी गोद मे आ गिरे.पागल कि तरह छोटी रानी ज़मीन कोरने लगी। थोरी ही देर में उसमें से चांद सूरज जैसे दोनो बच्चे निकल आये.छोटी रानी ने दोनों को गले लगा लिया।
राजा साड़ी बात समझ गया.उसने छहों रानियों को करी सज़ा दी और छोटी रानी से अपने किये की माफी मांगी.बच्चों को गले लगायौर सबको लेकर महल आ गए.कहते हैं, जैसे रानी औए बच्चो के भाग फायर, वैसे ही सबके फिरें.मगर जैसी रानी की दुर्गति हुई, वैसी किसी की ना हो और राजा जैसा इन्सान भी क्रोध में अपना विवेक ना खोये.