टहलते हुए आइए, सोचते हुए जाइए.

Thursday, November 8, 2007

एक दीप से जले दूसरा

सुजन काका की आंखों से आंसुओं की धार बह रही थी। आज अगर शंकर होता .... उनका गला भर आया। छाती का बलगम गले में पहुंच गया तो ठसका लग गया और वे जोर जोर से खांसने लगे। बहुरिया आस्ते से गरम पानी का लोटा और उगालदान रखा गई। सुजन काका ने गरम पानी की एक दो घूँट भारी तो थोडा आराम मिला। मगर बहुरिया को देखा कर फिर से कलेजा मुँह को आ गया। चाँद सी बहुरिया अमावस का चाँद हो गई है। शंकर के जाने के बाद से आज तक उसने बहुरिया के चहरे पर हँसी की रेख तक नहीं देखी है।
काकी भी उसे देखकर हाय भर उठाती हैं। भारी जवानी में ईश्वर दुश्मन को भी यह दिन ना दिखाए। शंकर के जाने के बाद से काकी ने भी चटक रंग की साडी पहनना, माँग में सिन्दूर भरना छोड़ दिया है। कैसे सजे धजे वह पीर की इस साक्षात मूरत के सामने।
आज तो दीवाली है। आज ही के मनहूस दिन सुजन काका को खबर मिली थी की देश की रखवाली करतेउनकाबेटा शहीद हो गया। वे चीख भी नहीं सके। काकी कलेजा फाड़कर रो पडी और बहुरिया तो जैसे जीती जागती लाश में बदल गई।
तब बहुरिया उम्मीद से थी। अब गोद में सात मास की किरण है। सभी उसी में उलझे रहते हैं। शाम हो गई थी। सभी के घर दीप जलाने की तैयारियां हो रही थीं। सुजन काका ने किरण का माथा सहलाते हुए कहा- "बिटिया, माँ से कह की दीप जलाए।
बहुरिया आँगन में दीप रखकर जलाने लगी। उसका मन बार-बार अतीत की और भागा जा रहा था। दो बरस पहले शंकर यहाँ था। कितना सुहावना सबकुछ था। बदला तो कुछ भी नही है, मगर एक के न रहने से जीवन बदल जाता है। नन्ही किरण बाप को जान भी नहीं पाई। दीप में टेल के बदले जैसे आंसू भर रहे थे। उसने एक दीप जलाया। फिर उसी से दूसरा जलाने लगी की काकी ने टोका- "दिए से दिया नहीं जलाते हैं। अपशकुन होता है। बहुरिया की समझ में नही आया की अब वह कैसे दीप जलाए। किरण बार बार लौ की तरफ लपक रही थी।
तभी बाहर कुछ शोर सुनाई दिया, जो उनके घर के पास आकर और तेज हो गया। सुजन काका, काकी, बहुरिया सभी के कलेजे में धकधकी समा गई। अब क्या? तभी सभी ने देखा की शंकर अन्दर आ रहा है। ये कया? सुजन काका, काकी के मुँह से बोल नहीं फ़ुट रहे थे- 'भगवान, यह सपना है या सच?"
शंकर ने उनके पाँव छुए औएर बोला, 'घिर गया था दुश्मनों के बीच। कोई खबर नहीं मिलाने से सभी ने मुझे मरा समझ लिया था। आपके आशीष से आप सबके सामने हूँ। किरण पर उसकी नज़र परी। पलक झपकते वह सब समझ गया। झट से उसे उठा कर गोद में भर लिया। काकी ने बहुरिया से कहा,' जला बेटी, एक दीप से दूसरा दीप जला। आज जितना बड़ा शकुन सबके जीवन में आए। लेकिन दीप जलाने से पहले उठ, ज़रा अच्छी साडी निकाल कर पहन।' आगे वह बोल न पाई, मगर उनके आंसू बोलते रहे। किरण वैसे ही दीप की और देखा देख कर उसकी और लपक रही थी।

1 comment:

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत सुन्दर व मार्मिक प्रसंग प्रस्तुत किया है।बधाई।

दीपावली बहुत-बहुत मुबारक