टहलते हुए आइए, सोचते हुए जाइए.

Thursday, February 18, 2010

कांकड-कांकड चुनि लयो, हीरा दिया गंवाय!

एक आदमी जीवन से बहुत निराश था. उसे सभी सुख की चाहना थी. दुख की वह कल्पना भी नहीं कर पाता था. ज़ाहिर है, दुनिया में सभी को सभी सुख नहीं मिल पाते हैं. मगर आदमी इसे समझने से इंकार करता था. एक दिन अपनी निराशा में वह नदी किनारे बैठा था और अनमने भाव से अपने आस-पास की कंकडी, पत्थर आदि को उठा उठा कर नदी में फेंकता जा रहा था. नदी किनारे बैठे-बैठे शाम होने लगी तो वह वापस जाने के लिए उठा. तभी उसकी नज़र अपने आस-पास की कंकडी, पत्थर आदि की ओर गई, जिसी वह सुबह से उठा-उठा कर नदी में फेंक रहा था. उसने देखा कि जो कंकडी, पत्थर आदि वह नदी में फेंक रहा है, दर असल वे कंकडी, पत्थर नहीं, हीरे, मोती व अन्य बहुमूल्य पत्थर थे. आदमी बहुत पछताया, फिर से अपनी मूर्खता पर दुखी हुआ. अपनी भूल सुधारने के लिए वह उसी दम नदी में उतरा और डुबकी लगा लगा कर पानी से कंकडी, पत्थर आदि वापस निकालने की कोशिश करने लगा. शाम से सुबह हो गई. सुबह के झुटपुटे में उसने पाया कि उसने शाम को साफ सुथरे छोडे नदी के तट को शाम से फेंके गए नदी के कीचड से गन्दा कर दिया है. गन्दगी तो चारो ओर फैल गई थी, मगर उसमें से उसे एक भी हीरा, मोती या अन्य बहुमूल्य पत्थर  नहीं मिला.
हम क्या करते हैं? बाहर की अच्छाइयों को अस्वीकार करते रहते हैं और मन की बुराइयों को बाहर निकालते रहते हैं और ऊपर से दुखी भी होते रहते हैं.

1 comment:

अन्तर सोहिल said...

जो बाहर बचे रह गये थे, क्या वो काफी नही थे। ज्यादा के लालच में वह नदी में उतरा।

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