टहलते हुए आइए, सोचते हुए जाइए.

Wednesday, February 17, 2010

दाग़ ?

एक बच्चा था, बेहद गुस्सैल. गुस्से में वह कुछ भी कर डलता. एक दिन उसके पिता ने उससे कहा कि इतना गुस्सा उसी के लिए हानिकारक है. बच्चे ने कहा कि गुस्सा कम करने के लिए वह कया करे? पिता ने उसे ढेर सारी कीलें दीं और कहा कि जब जब तुम्हें गुस्सा आये, तुम ये कील किसी पेड पर ठोक आना. बच्चा वैसे ही करने लगा. लेकिन कील ठोकने में उसे मेहनत लगती. फिर उसे यह काम व्यर्थ नज़र आने लगता. इसका असर यह हुआ कि धीरे धारे उसका गुस्सा कम होने लगा. एक दिन उसकी सारी कीलें खत्म हो गई. वह पिता के पास पहुंचा और बोला कि उसका गुस्सा उसके पास की कीलों की तरह समाप्त हो गया है.
पिता ने कहा कि अब वह एक काम और करे कि उसने जो कीलें पेडों में गाडी हैं, उसे निकाल निकाल कर ले आये. बच्चा करने लगा, पर उसने पाया कि इसमें तो कील ठोकने से भी अधिक मेहनत और समय लग रहा है. अब उसे अफसोस आने लगा कि यदि उसने गुस्सा नहीं किया होता तो उसे यह सब नहीं झेलना पडता. फिर भी किसी किसी तरह से उसने कुछ कीलें निकालीं और पिता के पास पहुंचा. पिता उसे लेकर पेड के पास आये और बोले- "गुस्सा करने से किसी को कुछ हासिल नही होता. गुस्सा करने से मन पर इसी तरह से कील के ठुंकने का अहसास होता है. गुस्से की भरपाई इसी कील को निकालने की तरह दुखदाई होती है. गुस्सा निकल भी जये, मगर कील निकालने के बाद के जो दाग पेड पर बने रह गये हैं, वे कभी भी नहीं निकलेंगे. मन में भी यही दाग़ बना रह जाता है."
बच्चे की समझ में बात आ गई. हमारी समझ में? रहिमन भी तो  कह गये है-
"रहुमन धागा प्रेम का, मत तोडो चटकाय
तोडे से फिए ना जुडे, जुडे गांठ पड जाये.

6 comments:

Udan Tashtari said...

प्रेरक प्रसंग..आभार!

निर्मला कपिला said...

बोध कथा सार्गर्भित है धन्यवाद्

अजित गुप्ता का कोना said...

कभी नहीं करेंगे गुस्‍सा। आजकल तो पेड़ भी नहीं बचे हैं कील कहाँ ठोकने जाएंगे?

chavannichap said...

यही तो सोचना है. आइये, इसी बहाने कुछ पेड भे लगा आयें.

Anonymous said...

सोदाहरण बहुत सुंदर और शिक्षाप्रद रचना

Mithilesh dubey said...

बेहद शिक्षाप्रद कहानी , आभार ।