टहलते हुए आइए, सोचते हुए जाइए.

Tuesday, March 18, 2008

सावन-भादों मे...

और इस बार एक फगुआ। होली आ ही गई है, रंग की सुगंध अभी से मन को नशीला बना रही है। अबीर की बरसात, रंग का नाद और मन का सुरूर। पर मन केवल रंग से थोड़े ना मानता है। उसे तो धूल, मिट्टी, कीचड़ -सब कुछ चाहिए। अरे एक ही दिन तो मिलता है, अपने आप को एक आदम रूप में ख़ुद को देखने का- दिखाने का। उस पर से मीठे- मीठे पुए, दही बड़े, कचौरी, टमाटर की मीठी चटनी, कटहल की सब्जी... आहा हां! मुंह में पानी आ रहा है। इसे गताकिये और पहले फगुआ गाइए। वैसे हमारे यहाँ कहावत है कि "होरी में बुढ़वा देवर लागे।'. मतलब उन्हें भी छूट है। ऐसे गीत ख़ास कर महिलायें ही गाती हैं। पुरुषों के गीत तो जोगी जी सारारारा वाले होते हैं। महिलाओं के इस तरह के। और एक ख़ास धुन पर-

सावन-भादों मे बलमुआ हो चुबैये बंगला
सावन-भादों मे...!
दसे रुपैया मोरा ससुर के कमाई
हो हो, गहना गढ़एब की छाबायेब बंगला
सावन-भादों मे...!
पांचे रुपैया मोरा भैन्सुर के कमाई
हो हो, चुनरी रंगायब की छाबायेब बंगला
सावन-भादों मे...!
दुइये रुपैया मोरा देवर के कमाई
हो हो, चोलिया सियायेब की छाबायेब बंगला
सावन-भादों मे...!
एके रुपैया मोरा ननादोई के कमाई
हो हो, टिकुली मंगायेब की छाबायेब बंगला
सावन-भादों मे...!
एके अठन्नी मोरा पिया के कमाई
हो हो, खिलिया मंगाएब की छाबायेब बंगला
सावन-भादों मे...!

1 comment:

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

विभा जी!
इसमें बात तो पूरी बरसात की की गई है और आप इसे फगुआ कह रही हैं! मामला मेरी समझ में नहीं आ रहा है. बहरहाल जो भी हो, यह भोजपुरिया इलाके का अर्थशास्त्र बहुत कायदे से उकेर रहा है.