टहलते हुए आइए, सोचते हुए जाइए.

Thursday, August 30, 2007

लोक कथाएं हमारी संस्कृति व इतिहास से जुडी हुई है.मैथिलि भाषा में लोककथाओं कि समृद्ध परम्परा है.हमारे पूर्वजों ने इस मौखिक परम्परा को विक्सित किया था.अपने बचपन में मुझे भी इन कथाओं को सुनने का अवसर मिल.मिथिला की होने के नेट मेरा यह कर्तव्य है कि मैं इन कथाओं को लिखूं.ये कथाएं मेरे संग्रह मिथिला की लोककथाएँ से ली जा रही हैं.मेरा प्रयास होगा कि मैं इन्हें आपके लिए प्रस्तुत करुं ताकि आप भी इनका आनन्द ले सकें और अपने बच्चों को भी सुना सकें.मेरे इस प्रयास पर अपके विचारों व टिप्पणियों की प्रतीक्षा रहेगी। - विभा रानी

3 comments:

VIMAL VERMA said...

विभाजी आप भी हैं ? चलिये बहुत अच्छा है...जो कुछ भी सहेज के रखा है.. सब बांटिये.. हम तैयार हैं.. सुखद लगा आपके ब्लॉग पर आना, हमारी शुभकामनाएं स्वीकार करें..

आभा said...

ब्लॉग की दुनिया में पका स्वागत है।

rashmi ravija said...

Read ur stories..enjoyed allot..Mitti ki saundhi khushbu hai inme..
Bhula bisra bachpan yaad aa gaya jab Nani,Dadi aur shayad kaam karne wali kaki(hum maid ko kaki hi bulaya karte the)..is tarah ki kahaniyan sunaya karti thin aur hame kutch sikhane ka prayas karti thin..
Bachpan ki Galiyon ki dubara sair karane ke lie aapka bahut bahut shukriya[:)]
Keep up the good work..