पंडित ईश्वरचंद्र विद्यासागर बंगाल के बहुत बडे विद्वान थे. सभी उनका आदर करते थे. वे बहुत ही सादा जीवन बिताते थे.
एक बार शहर के एक रईस ने अपने यहां भोज का आयोजन किया. उस आयोजन में उसने शहर के सभी नामी लोगों को बुलाया. पंडित ईश्वरचंद्र विद्यासागर को भी आमंत्रित किया गया. वे हमेशा की तरह अपनी सादा वेशभूषा, यानी धोती-कुर्ता में गए. दरबान ने यह सोचा कि यह कोई गरीब ब्राह्मण है और कुछ पैसे या दान मांगने आया है. उसने पंडित ईश्वरचंद्र विद्यासागर को अंदर जाने नहीं दिया.
पंडित ईश्वरचंद्र विद्यासागर घर लौट गए. अबकी बार उन्होंने बहुत अच्छे और मंहगे कपडे पहने. दरबान ने उन्हें तुरंत अंदर जाने दिया. खाने की मेज पर पंडित ईश्वरचंद्र विद्यासागर भोजन की हर वस्तु को उठा कर कभी कोट तो कभी पतलून तो कभी टाई के पास ले जाते और कहते- “लो खाओ. यह तुम्हारे किए है. देखो, कितना स्वादिष्ट है. इसे बनाने में पैसे भी बहुत खर्च हुए हैं.”
किसी को भी कुछ समझ में नही आ रहा था. रईस ने पंडित ईश्वरचंद्र विद्यासागर से इसका कारण पूछा. पंडित ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने हंसते हुए जवाब दिया कि “यह भोज तो कपडों के लिए है. जब मैं यहां अपने साधारण कपडों में आया था, तब मुझे अंदर आने नहीं दिया गया. अब इस कपडे में आया हूं तो सभी मेरा आदर सत्कार कर रहे हैं. इससे मुझे पता चला कि यह भोज मेरे लिए नहीं, मेरे कपडों के लिए है. इसलिए मैं यह सारा भोजन इन कपडों को करा रहा हूं. “
रईस यह सुनकर बहुर शर्मिंदा हुआ. उसने पंडित ईश्वरचंद्र विद्यासागर से इसके लिए माफी मांगी और उनसे भोजन करने का अनुरोध किया. पंडित ईश्वरचंद्र विद्यासागर तो विद्वान और समझदार थे ही. उन्होंने सहर्ष भोजन किया.
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4 comments:
बहुत सुन्दर प्रेरक कथा के लिये आभार
वैसे यह सच भी है, सब जगह आदर वेशभूषा को ही मिलता है, बजाय व्यक्तित्व के
प्रणाम
आप चाहें तो अपने ज्ञान से इस धारणा को बदल सकते हैं सोहिल. अंतत: ज्ञान ही पूजित होता है.
प्रेरक कथा के लिए धन्यवाद |
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