टहलते हुए आइए, सोचते हुए जाइए.

Wednesday, July 21, 2010

दो भाइयों का प्रेम

मोहन और गणेश दो भाई थे. बहुत गरीब, मगर बहुत उदार. हमेशा दूसरों के काम आनेवाले. उनके माता-पिता उन्हें जी जान से भी अधिक प्यार करते थे.

दुर्भाग्य से एक दिन भूकम्प आया और उस भूकम्प में उनके माता-पिता घर की दीवार के नीचे दब गए. इन दोनों भाइयों ने उन्हें जी-जान से निकालने की कोशिश की, मगर वे सफल नहीं हो सके.

दोनों ही भाई छोटे थे. कोई भी कमाता नहीं था. दोनों भाइयों ने व्यापार करने की सोची. उन्होंने अपनी जमीन का कुछ हिस्सा बेचा और दोनों ने अपनी अपनी दुकान शुरु की.

दोनों की दुकान चल निकली. मोहन की शादी हो गई. उसके दो बच्चे भी थे. गणेश अभी और कमा कर फिर शादी करना चाहता था.

एक दिन मोहन की दुकान में खूब बिक्री हुई. मोहन ने सोचा कि मेरा भाई अकेला है. वह कहीं भी घूमने के लिए जा सकता है. इसलिए क्यों ना वह उसे दो लाख रुपए दे दे. यह सोचकर वह गणेश के घर गया और उसकी टेबल की दराज में दो लाख रुपए रखकर आ गया.

इधर गणेश ने सोचा कि मैं तो अकेला होकर भी इतना अधिक कमाता हूं. भाई का तो बडा परिवार है. बच्चों की पढाई के लिए भी उसे पैसे चाहिए. यह सोचकर वह भी दो लाख रुपए ले कर मोहन के पास गया. मोहन की आंखों में आंसू आ गए. उसने गणेश को गले से लगा लिया. वह बोला, “जब तक हम इसी तरह से प्रेम भाव से रहेंगे, हम पर कोई भी मुसीबत नहीं आएगी.”

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