टहलते हुए आइए, सोचते हुए जाइए.

Friday, March 28, 2008

पैसे देते जाइए.

एक समय था, जब सृष्टि में केवल जल ही जल था। ईश्वर एक बार भ्रमण पर आए तो एक आदमी से मिले। उससे हांचाल पूछा। आदमी बोला, "सब कुछ तो ठीक है, मगर चारो और केवल जल ही जल है, मन घबराता है। भगवान ने पहाड़ दे दिया। फ़िर एक बार घूमने आए। आदमी से पूछा, अब तो ठीक है? आदमी बोला, "कहे को ठीक? पहाड़ पर तो केवल पत्थर ही दिखाते हैं। भगवान एन पहाड़ पर हरियाली ला दी। फ़िर पूछा, "अब तो ठीक?" आदमी बोला, "कैसा ठीक? न खाने को कुछ है, न पीने को। केवल जल पीकार्ट कैसे जीवित रहा जा सकता है?" ईश्वर ने जमीन, पेर-पौधे, फल, गाय सब कुछ दे दी। आदमी मस्ती से रहने लगा। काफी दिनों बाद भगवान वहाँ आए और पूछा, "अब तो ठीक है? " भगवान को आया देख आदमी उनकी आव-भगत में जुट गया। उन्हें अछा-अच्छा खाना -पीना दिया। गाय का शुद्ध दूध पीने को दिया। भगवान ने चलते हुए कहा, "मुझे अच्छा लगा यह देखकर कि अब तुम खुश हो। अब तो तुम्हें और कुछ नहीं चाहिए ना?"
आदमी ने कहा, "ये जो आपने अभी सब कुछ खाया है, उसके पैसे देते जाइए।"

Friday, March 21, 2008

होली में राम-सीता

कल होली है, मगर धन्य भाग हमारे कि मीडिया, अखबार और अब नेटबार ने हम सबको कई दिन पहले से ही रंग में सराबोर कर रखा है। मिथकीय रूप में होली के प्रसंग में कृष्ण और राधा की ही होली दिखती है। मथुरा वृन्दावन भी होली के 'बरसाने' वाले रंग से भीगे रहते हैं।
मिथिला तो सीता की भूमि है, इसलिए यहाँ पर राम-सीता की होली ना हो, ऐसे कैसे हो सकता है ? तो ये फगुआ है, राम-सीता पर-
कंहवा ही राम जी के जन्म भयो हरी झूमरी
अब कंहवा ही बाजे ले बधाई खेलब हरी झूमरी
अजोधा में रामजी के जन्म भयो हरी झूमरी
अब मिथिला में बाजे ले बधाई खेलब हरी झूमरी
चिठिया ही लिखी-लिखी रामजी भेजाबे हरी झूमरी
अब सखी सभ करू न सिंगार, खेलब हरी झूमरी
किनकर हाथ मे बून्टबा , हरी झूमरी
अब किनकर हाथे अबीर, खेलब हरी झूमरी
रामजी के हाथ में बून्टबा, हरी झूमरी
अब सीता के हाथे अबीर, खेलब हरी झूमरी
उड़त आबे ले बून्टबा, हरी झूमरी
अब chamakat aabe अबीर, खेलब हरी झूमरी

Tuesday, March 18, 2008

सावन-भादों मे...

और इस बार एक फगुआ। होली आ ही गई है, रंग की सुगंध अभी से मन को नशीला बना रही है। अबीर की बरसात, रंग का नाद और मन का सुरूर। पर मन केवल रंग से थोड़े ना मानता है। उसे तो धूल, मिट्टी, कीचड़ -सब कुछ चाहिए। अरे एक ही दिन तो मिलता है, अपने आप को एक आदम रूप में ख़ुद को देखने का- दिखाने का। उस पर से मीठे- मीठे पुए, दही बड़े, कचौरी, टमाटर की मीठी चटनी, कटहल की सब्जी... आहा हां! मुंह में पानी आ रहा है। इसे गताकिये और पहले फगुआ गाइए। वैसे हमारे यहाँ कहावत है कि "होरी में बुढ़वा देवर लागे।'. मतलब उन्हें भी छूट है। ऐसे गीत ख़ास कर महिलायें ही गाती हैं। पुरुषों के गीत तो जोगी जी सारारारा वाले होते हैं। महिलाओं के इस तरह के। और एक ख़ास धुन पर-

सावन-भादों मे बलमुआ हो चुबैये बंगला
सावन-भादों मे...!
दसे रुपैया मोरा ससुर के कमाई
हो हो, गहना गढ़एब की छाबायेब बंगला
सावन-भादों मे...!
पांचे रुपैया मोरा भैन्सुर के कमाई
हो हो, चुनरी रंगायब की छाबायेब बंगला
सावन-भादों मे...!
दुइये रुपैया मोरा देवर के कमाई
हो हो, चोलिया सियायेब की छाबायेब बंगला
सावन-भादों मे...!
एके रुपैया मोरा ननादोई के कमाई
हो हो, टिकुली मंगायेब की छाबायेब बंगला
सावन-भादों मे...!
एके अठन्नी मोरा पिया के कमाई
हो हो, खिलिया मंगाएब की छाबायेब बंगला
सावन-भादों मे...!

Sunday, March 16, 2008

दुर्गति की रेखाएं

एक पंडित थे। रोज मुंह अंधेरे ही स्नान हेतु नदी की ओर निकल जाते। रेखाएं पढ़ने में निष्णात थे। एक दिन जब वे स्नान कर के लौट रहे थे, उन्हें रास्ते में एक मानव खोपडी मिली। इस खोपडी को देख कर इन्हें कुछ विचित्र सा अहसास हुआ। उनहोंने उसे उठा लिया और उसकी रेखाएं पढ़ने लगे। रेखाएं बता रही थीं कि अभी इसकी दुर्गति और भी लिखी है। वे हैरानी में पड़ गए। एक तो ऐसे ही यह इस तरह से बीच रास्ते पर पड़ा हुआ है। अब इसकी और कौन सी दुर्गति बची है? देखें तो? वे उसे घर ले आए और अपने घर के ताखे पर रख दिया और पूजा पाठ में लीन हो गए।
पूजा से निवृत्त होने के बाद जब वे आँगन अए तब देखा, पंडिताइन ऊखल में कुछ कूट रही है। पंडित जी ने पूछा कि "कहीं से कोई अनाज आया है क्या जो सुबह सुबह कूट रही हो। उजाला तो हो लेने देती। "
पंडिताइनगुस्से में भरी हुई थी। जवाब नहीं दिया, बल्कि मूसल से और भी जोर- जोर से चोट करने लगी। बार-बार पूछने पर पंडिताइन ने कहा कि कई दिन से तुम्हें नमक लाने के लिए कह रही हूँ। खाने के समय तो ऊपर से भी नमक चाहिए। अब रात लेकर आए भी तो इतना बड़ा ढेला। सिलौट पर कैसे कूटती इसे? इसलिए ऊखल में कूट रही हूँ।
पंडित जी बोले-" ये क्या अनर्थ कर दिया तुमने? " पर फ़िर वे संभल गए। पंडिताइन को पता चला कि यह नमक नहीं, इंसानी खोपडी है तो उन्हीं की खोपडी ठिकाने से बाहर कर दी जायेगी। बस इतना ही बोले कि यह नमक खाने लायक नहीं है। मैं दूसरा ले आता हूँ।
पंडित जी समझ गए कि क्यों खोपडी की रेखाएं बता रही थीं कि अभी इसकी और भी दुर्गत लिखी है। अब भला, इससे बढ़ कर और क्या दुर्गति किसी की हो सकती है?
यह कहानी याद आई, जब तोषी छोटी थी। वह मटन खा रही थी, जब उसे हड्डी के भीतर का बोन मैरो चाहिए था। संयोग से हड्डी बहुत मजबूत थी। बोन मैरो निकल नहीं पा रहा था। मेरी ननद तब वह हड्डी का टुकडा उठा कर ले गई और सिलौट पर उसे लोढे से कूट कूट कर टुकडे -टुकडे किया और फ़िर उसमेंसे बोन मैरो निकाल कर उसे दिया। उस हड्डी की दुर्गति देख कर मुझे इस कहानी की याद आ गई थी। आज भी अचानक से यह कहानी याद आ गई तो सोचा, आपके लिए भी प्रस्तुत कर दूँ।

Tuesday, March 11, 2008

सेर का सवा सेर

एक गप्पी था। बड़ी बड़ी गप्पें हांकता। एक दिन उससे किसी ने कहा कि पास के गाँव में उससे भी बड़ा गप्पी रहता है। तुम उससे ज़रूर मिलो। गप्पी को अपनी गप्पबाजी की कला पर अभिमान था। उससे भी बड़ा गप्पी कोई हो सकता है, यह बात उसे पची नहीं। लेकिन उसने यह तय किया कि वह उस गप्पी से मिलेगा ज़रूर। हो सका तो उसका भ्रम भी तोडेगा।
गप्पी दूसरे गप्पी के गाँव में जा पहुंचा। गाँव के बच्चों से उसने उसके घर का पता पूछा। बच्चों में से एक ने कहा की मैं उनका बेटा हूँ। आप बताएं कि क्या काम है?
गप्पी ने कहा कि वह उनसे मिलने आया है। बेटे ने कहा कि "अभी तो वे मच्छर -गाडी पर दस टिन घी लाद कर हाट गए हैं बेचने के लिए।"
"लौटेंगे कब?" बेटे की बात से झटका खाए हुए गप्पी ने पूछा।
"पता नहीं । कह गए थे, लौटते में वे खटमल की पीठ पर दो बोरा नमक लाद कर लायेंगे, गाँव के लोगों के लिए।"
गप्पी को फ़िर से एक और झटका लगा। वह कुछ नहीं बोला। थोडी देर तक वह इधर-उधर टहलता रहा। लडके के घर से एक औरत निकली। उसने लडके को बुलाया और कहा कि तुमने माकडे की जो जाली दी थी अपनी बहन के पोशाक के लिए, उसपर गाय ने गोबर कर दिया है और वह गोबर सोने मेंबदल गया है। तुम्हारी बहन जिद पर है कि भाई उस सोने के गोबर को धागे में बदल कर दे। वह उससे अपनी पोशाक पर कढाई करेगी और अपनी सहेली की शादी में पहन कर जायेगी।"
आदमी और भी चौंका। फ़िर भी वह कुछ नहीं बोला। बालक के घर के सामने एक बहुत बड़ा ताड़ का पेड़ था। गप्पी ने लडके से पूछा - "यह पेड़ किसका है?"
"हमारा। क्यों?"
"नहीं, कोई ख़ास नहीं। मैं यह सोच रहा था कि जब तुम्हारे बाउजी आयेंगे, मैं यह पेड़ उनसे मांग लूंगा।"
"आप क्या करेंगे इसका?" लडके ने पूछा।
"सोच रहा हूँ कि मैं इस पेड़ को काटकर इससे अपने लिए एक छडी बनाऊँगा।"
"ओह! इसी पेड़ के लिए तो रोज मेरे बाउजी और माँ में लड़ाई होती रहती है।"
"क्यों?"
"क्योंकि बाउजी कहते हैं कि मैं इस पेड़ का दतुना बनाऊंगा और माँ कहती है की वह इससे खदिका (दांत खोदने की सींक) बनाएगी।
लडके की बात सुनकर गप्पी वहाँ से चल पडा। रास्ते भर वह यही सोचता रहा कि जिसका बेटा इतना बड़ा गप्पी है, वह ख़ुद कितना बड़ा गप्पी हो सकता है! बिना उससे मिले ही उसने उसे अपने से बड़ा गप्पी maan liyaa.
aapake paas bhii yadi isase bhii badii badIi gapp ho to hamein zaroor bataaen.

Saturday, March 8, 2008

सूरजमुखी

आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस है। स्त्री की ताक़त, उसके स्वाभिमान की मिसाल मुझे अपनी मिथिला की लोक कथा में मिली। आपके लिए प्रस्तुत है यह कथा।
माता-पिता की दुलारी सूरजमुखी जब बड़ी हुई तब उसके माता- पिता ने धूम धाम से उसका ब्याह किया। दूल्हा एकदम सूरजमुखी के योग्य। विदा होकर सूरजमुखी अपनी ससुराल आई। उसके घर के पिछवाडे लौंग का पेड़ था। उससे चूते लौंग के फूल की भीनी भीनी खुशबू से मन सराबोर रहता।
कोहबर की रात। लौंग चुन चुन कर उससे सेज सजाई गई। सूरजमुखी व उसका वर, दोनों ही अपने अपने माता-पिता के दुलारे, एल-फ़ैल से सोने के आदी। दूल्हे ने सूरजमुखी से कहा- "आसुर घसकू, आसुर घसकू, सासू जी के बेटिया, कसमस मोहे ना सोहाए।" पहली ही रात और ऐसे अपमान जनक शब्द सुनकर सूरजमुखी क्रोध से लाल हो उठी। तुरंत वह अपने घर के लिए रवाना हो गई। जब पति से ही ऐसा अपमान तब बाकियों को वह कैसे सुहाएगी? इससे तो अच्छा अपना घर है न।
आहत सूरजमुखी नैनों मे आंसुओं का समंदर भरे चल पडी। रास्ते में एक नदी पड़ती थी। उसने मल्लाह को बुलाया- "नैया लाहू, नैया लाहू, भइया रे मलाहबा। झटपट पार उतारू हो।"
मल्लाह बोला- "नदी उफनी पडी है, ऐसे में पार उतरना खतरनाक होगा। इसलिए "आज की रातिया बहिनी एतही गमाहू, भोर उतारब पार हू। दिने खियैब बहिना चेल्हबा मछलिया, रात ओधैबो महाजाल हो."
सूरजमुखी सुनते ही गुस्से से लाल हो उठी । एक मल्लाह की इतनी बड़ी हिम्मत कि वह उससे इस तरह से बात करे? " अगिया लागैब मलाहा चेल्हबा मछलिया, बजरे खासिबो महाजाल हो। चाँद -सुरुज जैसन अपन स्वामी तेजलाहूँ, मलाहा के कोण बिसबास हो।"
इधर दूल्हे राजा को भी अपनी गलती का अहसास हुआ। अब वह अकेला नही है। बड़ा भी हो गया है। आपसी समझदारी व एक दूसरे के प्रति मान- सम्मान से ही घर गिरस्थी और दीन दुनिया चलती है।
तीन नाव लेकर वह चल पडा अपनी सूरजमुखी को मनाने- "एके नैया आबे ले आजान-बाजन, दोसर नैया आबे बरियत हो, तेसर नैया आबे ले दुलहा सुन्दर दुल्हा, लाडो ले गिलेमनाये हो।"
और इस तरह से सूरजमुखी ने अपने मान व स्वाभिमान की रक्षा की और फ़िर अपने पति के पास गई।
सच है, मान - सम्मान मिलता नहीं, उसे हासिल करना होता है।