टहलते हुए आइए, सोचते हुए जाइए.

Tuesday, December 16, 2008

गृहस्थ या वैराग्य जीवन

एक आदमी अपने गृहस्थ जीवन से बहुत तंग आ कर वैराग्य लेना चाहता था। इसके लिए वह एक साधू के पास गया। साधू ने कहा की वैराग्य जीवन बहुत मुश्किल जीवन है, तुम उसमें राम नहीं सकते। इसलिए यह विचार छोड़ दो। मगर आदमी को यह बात ग़लत लगी। उसने कहा की गृहस्थ जीवन की दसियों मुश्किलें हैं, वैराग्य में तो कुछ करना ही नहीं होता है। साधू ने कहा की ठीक है, मैं तुम्हारी परीक्षा लूंगा। अगर तुम उसमें सफल हो गए तो मैं तुम्हें वैराग्य दिलवा दूंगा।
साधू ने उसे एक महल जैसे घर में रखवा दिया। उसकी सेवा के लिए दास-दासी थे। खाने में उसे पूरी, मेवे मिष्टान्न मिलते। उसके पास सुख और आराम के सभी साधन थे, चिंता की कोई बात नहीं थी। आदमी बड़ा प्रसन्न था।
कुछ दिनों बाद साधू ने उसे एक झोपडी में रखवा दिया। वहाँ उसे रूखा-सूखा खाने को मिलता। अपने सारे काम उसे ख़ुद कराने पड़ते। झोपडी में न बत्ती थी, न पंखा। आदमी परेशान होकर साधू के पास गया और कहा की उसे बहुत तकलीफ हो रही है। वे क्यों नहीं उसे पहले वाले घर में रख देते हैं? साधू ने मुस्कुराते हुई कहा की यह तो तुम्हारी परीक्षा की दूसरी सीधी ही है। इसी में तुम दुखी होने लगे। अभी तो वैराग्य जीवन में इससे भी अधिक कष्ट उठाने पड़ेंगे। अभी तो तुम्हें अपना सारा स्वार्थ छोरकर दूसरों के सुख के लिए काम करना होगा। गिरहस्थ जीवन वैराग्य से भी मुश्किल है मगर गृहस्थ जीवन में तुम अकारण के लोभ, लालच, मद, क्रोध आदि से दूर रहकर भी वैराग्य जीवन बिता सकते हो, जबकि वैराग्य जीवन में तुम गृहस्थी के सुख नहीं भोग सकते। फ़िर गृहस्थ जीवन तुम्हारी अपनी जिम्मेदारी है और जो अपनी जिम्मेदारियों से बचने के लिए वैराग्य अपनाता है, उसे कभी भी सुख हासिल नहीं होता।
साधू की बात सुनकर आदमी की समझ में सबकुछ आया और वह साधू को प्रणाम करके अपने घर लौट गया।

Monday, October 27, 2008

आती लक्ष्मी, जाते शनि

दीपावली के अवसर पर एक कथा ।
एक राजा थे- बड़े ज्ञानी, महात्मा, नीर क्षीर न्याय वाले। उनके दरबार से कोई भी असंतुष्ट होकर नहीं जाता था।
एक बार की बात है की देवी लक्ष्मी और देव शनि में यह बहस छिडी की उन दोनों में से कौन बड़ा है? बहस बढ़ते -बढ़ते तक़रार तक आ गई। स्वर्ग के सभी देव देवी इस बहस को सुलझाने आए, मगर कोई इसे सुलझा न सके। सभी देवी लक्ष्मी के तुनुक स्वभाव व् देव शनि के क्रोध से परिचित थे। अंत में यह तय हुआ की धरती पर जाकर राजा से पूछा जाए। आख़िर वे इतने नीर क्षीर न्याय वाले हैं की ग़लत निर्णय दे ही नहीं सकते।
देवी लक्ष्मी और देव शनि राजा के पास पहुंचे। अचानक दोनों को और वह भी एक साथ और तमतमाए रूप में देखा कर राजा समझ गए की आज या तो उनकी खैर नहीं या फ़िर उनके राज्य पर बड़ी भीषण विपत्ति आनेवाली है।
फ़िर भी राजा ने दोनों का स्वागत करते हुए उन्हें आसन ग्रहण कराने को कहा। वहाँ सोने व् चांदी दोनों के सिंहासन रखे हुए थे। देवी लक्ष्मी सोने के और देव शनि चांदी के सिंहासन पर अपने-आप बैठ गए। देवी लक्ष्मी और देव शनि ने अपने आने का प्रयोजन बताया। राजा ने तुंरत कहा की आपने तो अपनी-अपनी श्रेष्ठता स्वयं सिद्ध कर दी है, अपना अपना आसन स्वयं अपने लिए चुनकर। दोनों ने अपना -अपना आसन देखा।देवी लक्ष्मी तो बड़ी प्रसन्न हुईं, जबकि देव शनि नाराज़। वे राजा से बोले की आपको यह तय करके बताना है की हम दोनों में से कौन श्रेष्ठ हैं? अब राजा पशोपश में पड़े। फ़िर भी थोड़ी देर तक सोच विचार कर फ़िर बोले- " सौन्दर्य सम्पूर्ण शरीर में रहता है। हर कोई अपने शरीर के अलग-अलग कोण से सुंदर दिखता है। इसलिए हे देव, देवी लक्ष्मी सामने से सुंदर दिखाती हैं, जबकी आपका सौंदर्य पीछे से द्विगुणित हो जाता है। इसलिए यह तो कहा ही नहीं जा सकता की दोनों में से श्रेष्ठ कौन हैं।देव , शनि आप दोनों ही श्रेष्ठ हैं। बस अपने-अपने स्वरूप के इस कोण को देखें तो आप दोनों की ही महिमा को कोई भी नकार नहीं सकता। देवी लक्ष्मी और देव शनि दोनों ही यह सुनकर बड़े प्रसन्न हुए। दोनों ने राजा को वचन दिया की वे उनके कथन के अनुसार ही राजा के सामने आयेंगे, यानी सामने से आती हुई देवी लक्ष्मी और पीछे से देव शनि । कहने का अर्थ की आती हुई लक्ष्मी और जाते हुए शनि।

Tuesday, August 5, 2008

होइहें वही जो राम रची राखा

संयोग पर विश्वास न करनेवालों के लिए तुलसी दास भी यह कह गए हैं। इसी संयोग से सम्बंधित एक कथा-

एक व्यक्ति को प्रकृति, संयोग, भाग्य आदि पर ज़रा भी भरोसा नहीं था। वह इन सबको महज़ कोरी गप्प मानता। एक दिन उसने किसी से कहा, "यदि तुम भविष्य जानते हो और बता सकते हो तो बोलो कि आज मेरे भाग्य में क्या लिखा है। " वह व्यक्ति अच्छा ज्योतिष था। उसने कहा, "आज तुम्हारे भाग्य में खीर खाना लिखा है।" आदमी खूब हंसा और बोला कि वह उसकी बात को झूठ सिद्ध कर देगा।
आदमी सोचने लगा कि अब क्या किया जाए? अगर वह घर पर रहता है और कहीं पत्नी ने खीर बनाई तो उसे खीर कहानी पड़ेगी। यदि पड़ोस से ही आ गई और पत्नी ने परोस दोया, तब भी छुटकारा नहीं। अगर दोस्तों के यहाँ गया और वहाँ खीर मिल गई, तो उसे खाना ही पडेगा। यह सब सोचकर वह सीधा जंगल में चला गया और एक पेड़ के ऊपर चढ़ कर बैठ गया- खूब झुरमुट में, ताकि लोग उसे देख ना सकें । अपनी इस तरकीब पर वह मन ही मन बहुत खुश हुआ कि अब आयें ज्योतिष महाराज और खिला कर दिखाएँ खीर।
शाम ढलने तक वहाँ कुछ तीर्थ यात्री आए। उनके पास अन्य सामान के साथ-साथ गायें भी थीं। दूध दुहा गया। तय हुआ कि इस दूध से खीर ही बना ली जाए। खीर बनने लगी। खीर तैयार हुई ही थी कि पीछे से घोडे की ताप यात्रियों को सुनाई दी। "डाकू, भागो।" बोलते हुए सभी यात्री अपना-अपना सामान लेकर जान बचा कर वहाँ से भागे।
सचमुच में वह डाकुओं का दल था। वे सब वहाँ रुके। आस-पास का मुआयना किया। खीर देख वे सभी खुश हो गए। भूख तो लग ही आई थी। वे सभी खीर देखा के उतावले हो गए कि उनका सरदार बोला, "यह मुझे किसी की साजिश लगती है, हम सबको मारने की। इतनी मात्रा में खीर कोई क्यों बनाएगा? और जिसने हमें मारने को सोचा है, उसने किसी को आस-पास बिठा भी रखा होगा। खोजो उसे।" सभी के खोजने पर आख़िर में वह आदमी पेड़ पर चढ़ा हुआ मिला। उसे नीचे उतारा गया। सरदार ने कहा," पहले इस खीर को यह आदमीखायेगा, ताकि पता चल सके कि इसमें ज़हर तो नहीं मिला हुआ है।" आदमी ने लाख कहा कि वह किस कारण यहाँ आया है, मगर उसकी बात किसी ने नहीं सुबनी। वह जैसे-जैसे खीर खाने की मनाही करता, सरदार सहित सभी का शक यकीन में बदलता जाता कि सच्चमुच इस खीर में ज़हर मिला हुआ है। अंत में, कुछ डाकुओं ने उसे पटक कर उसके मुंह में खीर डालनी शुरू कर दी। जब खीर मुंह में चली ही गई तो आदमी उठ बैठा और बोला, "अब तो आज का संयोग घटित हो ही गया। अब मुझे भर पेट खीर खाने दो।"

Tuesday, July 22, 2008

कुत्ते की दुम - टेढी की टेढी

एक आदमी था- बेहद कर्कश और लडाका। हर किसी से किसी न किसी बात पर लड़ बैठता। पत्नी- बच्चे बेहद दुखी और परेशां। एक दिन उसके घर एक साधू भीख माँगने पहुंचे। संयोग से आदमी घर पर ही था। उसने साधू को बेईज्ज़त करके घर से निकाल दिया। पत्नी के विरोध करने पर उसे भी खूब भला-बुरा कहा। साधू चुपचाप मुस्कुराते हुए चले गए।
दूसरे दिन साधू फ़िर पहुंचे। उस दिन आदमी घर पर नहीं था। पत्नी ने पति का गुस्सा काबू में करने के उपाय पूछे। साधू ने कहा, "तुम उसे लेकर मेरे पास आओ।"
बड़ी कोशिश -मिन्नत के बाद आदमी पत्नी के साथ साधू के यहाँ पहुंचा। दर असल वह भी अपने स्वभाव का खामियाजा कई बार झेल चुका था। उसने भी सोचा, क्या पता, कहीं कोई उपाय मिल ही जाए।
साधू ने उसे सफ़ेद तरल पदार्थ की एक बड़ी सी बोतल दी और कहा कि जब कभी तुम्हे लगे कि तुम्हे बहुत तेज गुस्सा आ रहा है, इसकी एक ढक्कन दवा अपने मुंह में रख लेना। सावधान, इसे निगलना नहीं। जब तुम्हारा गुसा शांत हो जाए तो इसे किसी झाडी या पौधे की जड़ में फेक देना।
आदमी ने ऐसा ही करना शुरू कर दिया। आश्चर्य कि उसके व्यवहार में बहुत बदलाव आ गया। एक -दो महीने बाद वह दवा ख़त्म होने पर आदमी फ़िर से साधू के पास दवा लेने पहुंचा। साधू ने उसे बताया कि वह दवा नहींं, बस सादा पानी था। मुंह में रखे रहने से तुम बोलने में असमर्थ हो जाते थे। इसलिए तुम किसी को जवाब नहीं दे पाते थे। उस पानी को किसी झाड़ में फेकने से उस झाड़ को भी पानी मिल जाता था। इस तरह से एक्पंथ दो काज होते गए। अब तुम्हें किसी भी दवा की ज़रूरत नहीं। "
आदमी यह सुनते ही क्रोध में भर आया और लगा चीखने-चिल्लाने कि साधू ने उसे बेवकूफ बनाया है। साधू कुछ नहीं बोले और पहले की ही तरह मंद -मंद मुस्काते रहे। आदमी फ़िर से अपने रंग पर आ गया। सच ही कहा है कि स्वभाव व् कुत्ते की पुँछ एक जैसी ही रहती है- टेढी की टेढी।

Tuesday, July 15, 2008

चम्पाकली

आज अपना नाटक 'अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजो' पर काम कर रही थी। उसमें प्रयुक्त यह लोक कथा याद आ गई। विषय बहुत ही संवेदनशील होने के कारण हर बार मन ख़राब हो जाता है। मनुष्य की वासना उसे कहाँ-कहाँ ले जाती है, यह नाटक का कथ्य है, जिसे आधार देने के लिए इस लोक कथा को उसमें दिया गया है। कथा है-
"राजा की अनिन्द्य सुंदर बेटी चम्पाकली पर उसके ही सगे भाई की नज़र थी और वह उसे हर हाल में पाना चाहता है। एक दिन जब चम्पाकली महल में नहीं थी, राजकुमार उसकी पसंद का एक जंगली फल- भटकोयें, महल के ताखे पर रखवा देता है और मुनादी करवा देता है कि जो भी इन फलों को खाएगा, राजकुंमार का विवाह उसी के साथ होगा। ननिहाल से लौटने पर चम्पाकली उन फलों को देखा कर खुश हो जाती है और उन्हें खा लेती है। पुत्र -मोह में पड़कर राजा चम्पाकली का ब्याह राजकुमार से कराने को राजी हो जाते हैं। रानी के विरोध का इस पुरूष -प्रधान समाज में कोई स्थान है नहीं। राजा यह ताकीद भी करा देता है कि चम्पाकली को यह पता तो चले कि उसका ब्याह हो रहा है, मगर यह नहीं कि किसके साथ हो रहा है। जान के डर से सभी चुप थे। चम्पाकली असहज अनुभव कर रही थी। वह सबसे पूछती कि उसकी शादी से लोगों के चहरे पर खुशी क्यों नहींं है? लोग कुछ-कुछ बहाने बना कर वहाँ से टाल जाते। एक दिन तोता-मैना का एक जोड़ा दाना चुगने वहाँ पहुंचता है। मैना तोते को आगाह करती हुई कहती है कि ऐसे अनाचारी राजा के यहाँ का दाना चुगना नर्क में जाने से भी बदतर है, जहाँ सगे भाई- बहन में शादी करवाई जा रही हो। चम्पाकली यह सुन स्तब्ध रह जाती है। अगले ही दिन उसका ब्याह होनेवाला था। वह उसी रात अपने सारे गहने -कपडे पहन नदी घाट जाती है, नाव खोलकर बीच धार पहुँच जाती है। मल्लाह भागा-भागा राजा को ख़बर करता है। राजा, रानी, राजकुमार सभी उसे लौट आने को कहते हैं। मगर चम्पाकली कहती है कि वह कैसे लौट सकती है उस घर में, जहाँ उसके पिता उसके ससुर, उसकी माता उसकीसास और उसका अपना भाई ही उसका पति बननेवाला है। और वह नदी में डूब कर अपने प्राण दे देती है।"
कथा यहाँ समाप्त होती है, मगर आज यह वहशी प्रवृत्ति बड़ी तेजी से फ़ैल रही है, जिसमें अपने ही नज़दीकी रिश्तेदारो, पड़ोसियों आदि की हवस का शिकार बच्चियां बनती हैं। क्या हम उन्हें यह सिखाएं कि समाज में, घर में किसी पर यकीन ना करो। और vishvaas से रहित इस धरती पर क्या कोई जी सकता है?

Saturday, June 7, 2008

नई व्याख्या- साधू व बिच्छू

आपको पाता है, एक साधू जब नदी में स्नान कर रहे थे तो एक बिच्छू को पानी में बहते देखा। स्वभाववश उनहोंने उसे हथेली में उठाकर बाहर निकालने लगे। बिच्छू ने भी अपनी आदतावश उन्हें कत खाया। दर्द से तिलमिलाकर साधू के हाथ से बिच्छू गिर गया। फ़िर तो यह कई बार चला। कई डंक के बाद आख़िर में साधू उसे बाहर निकालने में सफल हो गए।
एक व्यक्ति यह देख रहा था। उसने साधू से पूछा, "आपने यह क्यों किया?" साधू ने कहा, "अपने -अपने स्वभाव से लाचार हम दोनों ने वही किया, जो हमें करना था ।"
व्यक्ति बोला-"अब ज़माना यह नही है। सोचिये, एक खतरनाक जीव को बचाने में आपकी इतनी मेहनत गई, समय गया और उसके बाद वह और भी खतरनाक पीढियों को जन्म देगा। ऐसे ही लोग इस दुनिया के लिए खतरनाक होते हैं"
आदमी ने शोर माछ कर लोगों को इकट्ठा किया और साधू पर इल्जाम लगाया कि इसने खतरनाक किस्म के प्राणियों को बचायाहाई जिससे हम सबके जीवन को खतरा है।"
भीड़ उन्मादी होती है। भीड़ का कोई विवेक नही होता। भीड़ ने साधू को मार डाला। यह नही पूछा कि आख़िर साधू ने ग़लत किया क्या था?

Friday, May 30, 2008

भेड़िया आया - नई व्याख्या

आप सभी यह कहानी जानते हैं कि भेड़ चरानेवाला बालक भेड़ च्हराते समय शैतानी की सोचता। वह 'भेडिया आया, भेडिया आया' कहकर चिल्लाता। पूरा गाँव वहां उसकी जान बचाने के लिए दव्द पङता। सभी को अपने सामने पाकर उनकी बेवकूफी पर वह खूब हंसता। गाँव के लोग मुंह बनाकर चले जाते। ... और एक दिन ऐसा हुआ कि सचमुच भेडिया आया। उस दिन वह बालक सच में खूब-खूब चिल्लाया, मगर आज उसकी आवाज़ सुनकर कोई नहीं आया। सबने यही समझा कि अआज भी उसे बुद्धू बनाया जा रहा है। भेडिया ने लडके को खा डाला।
-नीति इस कथा की यह है कि झूठ मत बलों।
अब आज के बच्चे हमारे- आपकी तरह नहीं हैं। अपनी व्याख्या देना उन्हें अच्छी तरह से आता है। सुनिए इस कहानी कि अलग-अलग व्याख्या तीन अलग-अलग क्षेत्र में रह रहे तीन बच्चों से।
बच्चा १ इस कहानी को सुनकर बोलता है- " बच्चे की जान तो नाहक गई। पनिश तो उसके मालिक को करना चाहिए था। क्या उसे पता नहीं कि यूएन द्वारा चाइल्ड लेबर पर बैन लग चुका है?"
बच्चा-२- " बिचारा बच्चा। जबतक झूठ बोलता रहा, लोग उसके पास आते रहे। जिंदगी में एक बार सच बोला तो उसे अपनी जान से हाथ धोना पडा । अब ऐसे में आप कहते हैं कि सदा सच बोलना चाहिए? अब आप ही बताइये कि झूठ बोलकर मैं खेलू-कूदूं, मौज मस्ती मनाउऊँ या सच बोलकर जान गवाऊँ?"
बच्चा ३- सब षडयंत्र है। उस बच्चे के ख़िलाफ़। सबने मिलकर उस बच्चे को मार डाला। अगर पहली ही बार में उसकी बात को गंभीरता से ले लिया जाता और सोचा जाता कि यस, एक दिन ऐसा भी कुछ हो सकता है तो यह नौबत ही नहीं आती। "
मुझे याद आ गई अपनी दोनों बेटियां। बड़ी ने प्रेंचंद की 'कफ़न' पढ़ा कर मुंह बिच्काते हुए कहा था कि निकम्मे लोगों पर कथा लिखा कर कौन सा बहादुरी का काम कर लिया गया है? कामचोर की सहायता कोई क्यों करे। They deserve it."
छोटी 'फूल की अभिलाषा' कविता पर बोली थी, "यह फूल की नहीं, कवि की अपनी अभिलाषा है। आज हर कोई अच्छे से रहना चाहता है। फूल के मुंह होता तो वह कहता कि उसे रास्ते पर नहीं, किसी भी अच्छी जगह जाना है, जहाँ लोग उसकी देख भाल करें, उसे पाकर लोग खुश हों।"
यह आजकल के बच्चों की दुनिया है, उंके लोक का, उनके विजन का, उनकी सोच का विस्तार है। इसका सम्मान भी हमें करना हूगा और अपनी संस्क्र्ती और मूल्यों का संरक्षण भी।

Saturday, May 10, 2008

कंजूस- मखीचूस

कहावतों की दूनिया बडी रोचक होती है। एक वाक्य या वाक्यांश में पूरी की पूरी बात कह देना। मगर कभी सोचा है कि इन कहावतों के पीछे और क्या और कैसी कहानियां बनी- छुपी रहती हैं। ऎसी ही एक कहानी याद आ गई इस कहावत की।
एक आदमी था, बेहद कंजूस। कभी किसी को nऐ घी कुछ खिलाता- न पिलाता। ख़ुद भी कभी उनके यहाँ नहीं जाता कि किसी के यहाँ कुछ खा पी लेने पर लोग उसे भी खिलाने-पिलाने को कहेंगे।
एक बार उसकी मा ने उसे बाज़ार से घी लाने को कहा। घी ले कर जब वह लौट रहा था, टैब अचानक एक मक्खी घी के कटोरे में गिर पडी। कंजूस को बड़ा गुस्सा आया। उसने मारे गुस्से के मक्खी को कटोरे से बाहर निकाला और झटके से उसे फेंकना चाहा कि एकदम से रुक गया। उसने मक्खी की और देखा। उसके पूरे बदन पर घी लिपटा हुआ था। इतने घी का नुकसान? उसने उस माखी को मुंह में रख लिया। सारा घी चूस लेने के बाद उसने उसे मुंह से बाहर निकाल कर फेंक दिया और घर की और चल पड़ा। वह खुश था कि उसने घी का नुकसान नही होने दिया। संयोग की बात, कि जिस समय वह यह सब कर रहा था, उसके गाँव के एक आदमी ने उसे ऐसा करते देख लिया। बस, तभी से उसका नाम न केवल कंजूस -मक्खीचूस पड़ गया, बल्कि बेहद कंजूस को इसी नाम से पुकारे जाने का रिवाज़ ही चल पडा।

Monday, May 5, 2008

गाली भी कितनी सुहावन

शादी का समय है। बड़ी इच्छा हो रही है शादी का भोज खाने की। पहले जैसा, पत्तल लगा कर, घर और मोहल्ले की दादी, चाची और महाराज जी के हाथों का बनया। प्रेम से, गलिया कर खिलाती भौजैयान्न। आज के केतारार वाला खाना नहीं।
शादी ब्याह हो और हँसी मजाक, गाली के फव्वारे ना छूटें, ऐसा कैसे हो सकता है? शादी ब्याह मी तो हर मौके पर एक गाली। रस्म की समाप्ति ही ना हो, अगर गाली ना हो। तिलक चढ़ रहा है लडके का और गालिया गई। लड़की का कन्या निरीक्षण हो रहा है और जेठ को गालियों से नवाजा जा रहा है- ऐसन सुंदर गौर के छ्छुन्नर मिलालाई भैन्सुरा। साड़ी देलियाई चधबे लागी, पेंह लेल्कैं भैन्सुरा, अरे छम छम नाचे भैन्सुरा।' मंडप पर प्म्दित और नाइ दोनों है और दोनों को गालियों के उपहार दिए जा रहे हैं- अकलेल बभना, बकलेल बभना, एक रत्ती नून ला करे छाई खेखाना' लावा छिदियाया जा रहा है, दूल्हे की सारी रिश्तेदारून से अपने घरों के पुरुषों के सम्बन्ध जोड़े जा रहे हैं- बाऊ लाबा छिदियाऊ, बाऊ बीछी बीछी खाऊ, अहांक अम्मा, हमर बाबू जवारे सुताऊ। (माफी सहित यदि किसी को बुरा लगे)। दूसरे दिन के मराजादी भोज, (अब तो एक दिन की शादी में यह रस्म खत्म ही हो गई है) में सभी प्रमुख पाहुनों के नाम नोट करके घर की औरतों को दे दिए जाते हैं। फ़िर क्या है, दे गालियाँ- 'चटनी पूरी, चटनी पूरी, चटनी है अमचूर की, खानेवाला समधी साला, सूरत है लंगूर की, दायें हाथ से भात खाए, बांये हाथ से दाल रे, मुंह उठा कर दही चाते, कुकुर जैसन चाल रे।' ओह, ऐसा माहौल होता था कि अगर किसी पुरूष प्रधान के नाम से गाली नहीं गई गई तो वह नाराज़ हो जाता था। उसे लगता था कि बरात में वह महत्वपूर्ण नही है।
आज तो शादी-ब्याक के ही ठेठ गीत लुप्त से हो रहे हैं। लेडीज़ संगीत का ज़मानाहै। मुझे तो आज भी वे सभी गीत याद हैं, जो बेटी या बेटों की श्हदी में गाए जाते हैं। आहाहा, क्या रस, क्या मिठास, क्या सुर, क्या साज। और इन सबके बीच, इन गालियों का अपना अलग ही स्वाद। इनके बिना तू शादी- बया वैसा ही फीका रहता है, जैसे बिना नमक के तरकारी, बिना शक्कर के मिठाई।

Friday, March 28, 2008

पैसे देते जाइए.

एक समय था, जब सृष्टि में केवल जल ही जल था। ईश्वर एक बार भ्रमण पर आए तो एक आदमी से मिले। उससे हांचाल पूछा। आदमी बोला, "सब कुछ तो ठीक है, मगर चारो और केवल जल ही जल है, मन घबराता है। भगवान ने पहाड़ दे दिया। फ़िर एक बार घूमने आए। आदमी से पूछा, अब तो ठीक है? आदमी बोला, "कहे को ठीक? पहाड़ पर तो केवल पत्थर ही दिखाते हैं। भगवान एन पहाड़ पर हरियाली ला दी। फ़िर पूछा, "अब तो ठीक?" आदमी बोला, "कैसा ठीक? न खाने को कुछ है, न पीने को। केवल जल पीकार्ट कैसे जीवित रहा जा सकता है?" ईश्वर ने जमीन, पेर-पौधे, फल, गाय सब कुछ दे दी। आदमी मस्ती से रहने लगा। काफी दिनों बाद भगवान वहाँ आए और पूछा, "अब तो ठीक है? " भगवान को आया देख आदमी उनकी आव-भगत में जुट गया। उन्हें अछा-अच्छा खाना -पीना दिया। गाय का शुद्ध दूध पीने को दिया। भगवान ने चलते हुए कहा, "मुझे अच्छा लगा यह देखकर कि अब तुम खुश हो। अब तो तुम्हें और कुछ नहीं चाहिए ना?"
आदमी ने कहा, "ये जो आपने अभी सब कुछ खाया है, उसके पैसे देते जाइए।"

Friday, March 21, 2008

होली में राम-सीता

कल होली है, मगर धन्य भाग हमारे कि मीडिया, अखबार और अब नेटबार ने हम सबको कई दिन पहले से ही रंग में सराबोर कर रखा है। मिथकीय रूप में होली के प्रसंग में कृष्ण और राधा की ही होली दिखती है। मथुरा वृन्दावन भी होली के 'बरसाने' वाले रंग से भीगे रहते हैं।
मिथिला तो सीता की भूमि है, इसलिए यहाँ पर राम-सीता की होली ना हो, ऐसे कैसे हो सकता है ? तो ये फगुआ है, राम-सीता पर-
कंहवा ही राम जी के जन्म भयो हरी झूमरी
अब कंहवा ही बाजे ले बधाई खेलब हरी झूमरी
अजोधा में रामजी के जन्म भयो हरी झूमरी
अब मिथिला में बाजे ले बधाई खेलब हरी झूमरी
चिठिया ही लिखी-लिखी रामजी भेजाबे हरी झूमरी
अब सखी सभ करू न सिंगार, खेलब हरी झूमरी
किनकर हाथ मे बून्टबा , हरी झूमरी
अब किनकर हाथे अबीर, खेलब हरी झूमरी
रामजी के हाथ में बून्टबा, हरी झूमरी
अब सीता के हाथे अबीर, खेलब हरी झूमरी
उड़त आबे ले बून्टबा, हरी झूमरी
अब chamakat aabe अबीर, खेलब हरी झूमरी

Tuesday, March 18, 2008

सावन-भादों मे...

और इस बार एक फगुआ। होली आ ही गई है, रंग की सुगंध अभी से मन को नशीला बना रही है। अबीर की बरसात, रंग का नाद और मन का सुरूर। पर मन केवल रंग से थोड़े ना मानता है। उसे तो धूल, मिट्टी, कीचड़ -सब कुछ चाहिए। अरे एक ही दिन तो मिलता है, अपने आप को एक आदम रूप में ख़ुद को देखने का- दिखाने का। उस पर से मीठे- मीठे पुए, दही बड़े, कचौरी, टमाटर की मीठी चटनी, कटहल की सब्जी... आहा हां! मुंह में पानी आ रहा है। इसे गताकिये और पहले फगुआ गाइए। वैसे हमारे यहाँ कहावत है कि "होरी में बुढ़वा देवर लागे।'. मतलब उन्हें भी छूट है। ऐसे गीत ख़ास कर महिलायें ही गाती हैं। पुरुषों के गीत तो जोगी जी सारारारा वाले होते हैं। महिलाओं के इस तरह के। और एक ख़ास धुन पर-

सावन-भादों मे बलमुआ हो चुबैये बंगला
सावन-भादों मे...!
दसे रुपैया मोरा ससुर के कमाई
हो हो, गहना गढ़एब की छाबायेब बंगला
सावन-भादों मे...!
पांचे रुपैया मोरा भैन्सुर के कमाई
हो हो, चुनरी रंगायब की छाबायेब बंगला
सावन-भादों मे...!
दुइये रुपैया मोरा देवर के कमाई
हो हो, चोलिया सियायेब की छाबायेब बंगला
सावन-भादों मे...!
एके रुपैया मोरा ननादोई के कमाई
हो हो, टिकुली मंगायेब की छाबायेब बंगला
सावन-भादों मे...!
एके अठन्नी मोरा पिया के कमाई
हो हो, खिलिया मंगाएब की छाबायेब बंगला
सावन-भादों मे...!

Sunday, March 16, 2008

दुर्गति की रेखाएं

एक पंडित थे। रोज मुंह अंधेरे ही स्नान हेतु नदी की ओर निकल जाते। रेखाएं पढ़ने में निष्णात थे। एक दिन जब वे स्नान कर के लौट रहे थे, उन्हें रास्ते में एक मानव खोपडी मिली। इस खोपडी को देख कर इन्हें कुछ विचित्र सा अहसास हुआ। उनहोंने उसे उठा लिया और उसकी रेखाएं पढ़ने लगे। रेखाएं बता रही थीं कि अभी इसकी दुर्गति और भी लिखी है। वे हैरानी में पड़ गए। एक तो ऐसे ही यह इस तरह से बीच रास्ते पर पड़ा हुआ है। अब इसकी और कौन सी दुर्गति बची है? देखें तो? वे उसे घर ले आए और अपने घर के ताखे पर रख दिया और पूजा पाठ में लीन हो गए।
पूजा से निवृत्त होने के बाद जब वे आँगन अए तब देखा, पंडिताइन ऊखल में कुछ कूट रही है। पंडित जी ने पूछा कि "कहीं से कोई अनाज आया है क्या जो सुबह सुबह कूट रही हो। उजाला तो हो लेने देती। "
पंडिताइनगुस्से में भरी हुई थी। जवाब नहीं दिया, बल्कि मूसल से और भी जोर- जोर से चोट करने लगी। बार-बार पूछने पर पंडिताइन ने कहा कि कई दिन से तुम्हें नमक लाने के लिए कह रही हूँ। खाने के समय तो ऊपर से भी नमक चाहिए। अब रात लेकर आए भी तो इतना बड़ा ढेला। सिलौट पर कैसे कूटती इसे? इसलिए ऊखल में कूट रही हूँ।
पंडित जी बोले-" ये क्या अनर्थ कर दिया तुमने? " पर फ़िर वे संभल गए। पंडिताइन को पता चला कि यह नमक नहीं, इंसानी खोपडी है तो उन्हीं की खोपडी ठिकाने से बाहर कर दी जायेगी। बस इतना ही बोले कि यह नमक खाने लायक नहीं है। मैं दूसरा ले आता हूँ।
पंडित जी समझ गए कि क्यों खोपडी की रेखाएं बता रही थीं कि अभी इसकी और भी दुर्गत लिखी है। अब भला, इससे बढ़ कर और क्या दुर्गति किसी की हो सकती है?
यह कहानी याद आई, जब तोषी छोटी थी। वह मटन खा रही थी, जब उसे हड्डी के भीतर का बोन मैरो चाहिए था। संयोग से हड्डी बहुत मजबूत थी। बोन मैरो निकल नहीं पा रहा था। मेरी ननद तब वह हड्डी का टुकडा उठा कर ले गई और सिलौट पर उसे लोढे से कूट कूट कर टुकडे -टुकडे किया और फ़िर उसमेंसे बोन मैरो निकाल कर उसे दिया। उस हड्डी की दुर्गति देख कर मुझे इस कहानी की याद आ गई थी। आज भी अचानक से यह कहानी याद आ गई तो सोचा, आपके लिए भी प्रस्तुत कर दूँ।

Tuesday, March 11, 2008

सेर का सवा सेर

एक गप्पी था। बड़ी बड़ी गप्पें हांकता। एक दिन उससे किसी ने कहा कि पास के गाँव में उससे भी बड़ा गप्पी रहता है। तुम उससे ज़रूर मिलो। गप्पी को अपनी गप्पबाजी की कला पर अभिमान था। उससे भी बड़ा गप्पी कोई हो सकता है, यह बात उसे पची नहीं। लेकिन उसने यह तय किया कि वह उस गप्पी से मिलेगा ज़रूर। हो सका तो उसका भ्रम भी तोडेगा।
गप्पी दूसरे गप्पी के गाँव में जा पहुंचा। गाँव के बच्चों से उसने उसके घर का पता पूछा। बच्चों में से एक ने कहा की मैं उनका बेटा हूँ। आप बताएं कि क्या काम है?
गप्पी ने कहा कि वह उनसे मिलने आया है। बेटे ने कहा कि "अभी तो वे मच्छर -गाडी पर दस टिन घी लाद कर हाट गए हैं बेचने के लिए।"
"लौटेंगे कब?" बेटे की बात से झटका खाए हुए गप्पी ने पूछा।
"पता नहीं । कह गए थे, लौटते में वे खटमल की पीठ पर दो बोरा नमक लाद कर लायेंगे, गाँव के लोगों के लिए।"
गप्पी को फ़िर से एक और झटका लगा। वह कुछ नहीं बोला। थोडी देर तक वह इधर-उधर टहलता रहा। लडके के घर से एक औरत निकली। उसने लडके को बुलाया और कहा कि तुमने माकडे की जो जाली दी थी अपनी बहन के पोशाक के लिए, उसपर गाय ने गोबर कर दिया है और वह गोबर सोने मेंबदल गया है। तुम्हारी बहन जिद पर है कि भाई उस सोने के गोबर को धागे में बदल कर दे। वह उससे अपनी पोशाक पर कढाई करेगी और अपनी सहेली की शादी में पहन कर जायेगी।"
आदमी और भी चौंका। फ़िर भी वह कुछ नहीं बोला। बालक के घर के सामने एक बहुत बड़ा ताड़ का पेड़ था। गप्पी ने लडके से पूछा - "यह पेड़ किसका है?"
"हमारा। क्यों?"
"नहीं, कोई ख़ास नहीं। मैं यह सोच रहा था कि जब तुम्हारे बाउजी आयेंगे, मैं यह पेड़ उनसे मांग लूंगा।"
"आप क्या करेंगे इसका?" लडके ने पूछा।
"सोच रहा हूँ कि मैं इस पेड़ को काटकर इससे अपने लिए एक छडी बनाऊँगा।"
"ओह! इसी पेड़ के लिए तो रोज मेरे बाउजी और माँ में लड़ाई होती रहती है।"
"क्यों?"
"क्योंकि बाउजी कहते हैं कि मैं इस पेड़ का दतुना बनाऊंगा और माँ कहती है की वह इससे खदिका (दांत खोदने की सींक) बनाएगी।
लडके की बात सुनकर गप्पी वहाँ से चल पडा। रास्ते भर वह यही सोचता रहा कि जिसका बेटा इतना बड़ा गप्पी है, वह ख़ुद कितना बड़ा गप्पी हो सकता है! बिना उससे मिले ही उसने उसे अपने से बड़ा गप्पी maan liyaa.
aapake paas bhii yadi isase bhii badii badIi gapp ho to hamein zaroor bataaen.

Saturday, March 8, 2008

सूरजमुखी

आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस है। स्त्री की ताक़त, उसके स्वाभिमान की मिसाल मुझे अपनी मिथिला की लोक कथा में मिली। आपके लिए प्रस्तुत है यह कथा।
माता-पिता की दुलारी सूरजमुखी जब बड़ी हुई तब उसके माता- पिता ने धूम धाम से उसका ब्याह किया। दूल्हा एकदम सूरजमुखी के योग्य। विदा होकर सूरजमुखी अपनी ससुराल आई। उसके घर के पिछवाडे लौंग का पेड़ था। उससे चूते लौंग के फूल की भीनी भीनी खुशबू से मन सराबोर रहता।
कोहबर की रात। लौंग चुन चुन कर उससे सेज सजाई गई। सूरजमुखी व उसका वर, दोनों ही अपने अपने माता-पिता के दुलारे, एल-फ़ैल से सोने के आदी। दूल्हे ने सूरजमुखी से कहा- "आसुर घसकू, आसुर घसकू, सासू जी के बेटिया, कसमस मोहे ना सोहाए।" पहली ही रात और ऐसे अपमान जनक शब्द सुनकर सूरजमुखी क्रोध से लाल हो उठी। तुरंत वह अपने घर के लिए रवाना हो गई। जब पति से ही ऐसा अपमान तब बाकियों को वह कैसे सुहाएगी? इससे तो अच्छा अपना घर है न।
आहत सूरजमुखी नैनों मे आंसुओं का समंदर भरे चल पडी। रास्ते में एक नदी पड़ती थी। उसने मल्लाह को बुलाया- "नैया लाहू, नैया लाहू, भइया रे मलाहबा। झटपट पार उतारू हो।"
मल्लाह बोला- "नदी उफनी पडी है, ऐसे में पार उतरना खतरनाक होगा। इसलिए "आज की रातिया बहिनी एतही गमाहू, भोर उतारब पार हू। दिने खियैब बहिना चेल्हबा मछलिया, रात ओधैबो महाजाल हो."
सूरजमुखी सुनते ही गुस्से से लाल हो उठी । एक मल्लाह की इतनी बड़ी हिम्मत कि वह उससे इस तरह से बात करे? " अगिया लागैब मलाहा चेल्हबा मछलिया, बजरे खासिबो महाजाल हो। चाँद -सुरुज जैसन अपन स्वामी तेजलाहूँ, मलाहा के कोण बिसबास हो।"
इधर दूल्हे राजा को भी अपनी गलती का अहसास हुआ। अब वह अकेला नही है। बड़ा भी हो गया है। आपसी समझदारी व एक दूसरे के प्रति मान- सम्मान से ही घर गिरस्थी और दीन दुनिया चलती है।
तीन नाव लेकर वह चल पडा अपनी सूरजमुखी को मनाने- "एके नैया आबे ले आजान-बाजन, दोसर नैया आबे बरियत हो, तेसर नैया आबे ले दुलहा सुन्दर दुल्हा, लाडो ले गिलेमनाये हो।"
और इस तरह से सूरजमुखी ने अपने मान व स्वाभिमान की रक्षा की और फ़िर अपने पति के पास गई।
सच है, मान - सम्मान मिलता नहीं, उसे हासिल करना होता है।