टहलते हुए आइए, सोचते हुए जाइए.

Sunday, March 16, 2008

दुर्गति की रेखाएं

एक पंडित थे। रोज मुंह अंधेरे ही स्नान हेतु नदी की ओर निकल जाते। रेखाएं पढ़ने में निष्णात थे। एक दिन जब वे स्नान कर के लौट रहे थे, उन्हें रास्ते में एक मानव खोपडी मिली। इस खोपडी को देख कर इन्हें कुछ विचित्र सा अहसास हुआ। उनहोंने उसे उठा लिया और उसकी रेखाएं पढ़ने लगे। रेखाएं बता रही थीं कि अभी इसकी दुर्गति और भी लिखी है। वे हैरानी में पड़ गए। एक तो ऐसे ही यह इस तरह से बीच रास्ते पर पड़ा हुआ है। अब इसकी और कौन सी दुर्गति बची है? देखें तो? वे उसे घर ले आए और अपने घर के ताखे पर रख दिया और पूजा पाठ में लीन हो गए।
पूजा से निवृत्त होने के बाद जब वे आँगन अए तब देखा, पंडिताइन ऊखल में कुछ कूट रही है। पंडित जी ने पूछा कि "कहीं से कोई अनाज आया है क्या जो सुबह सुबह कूट रही हो। उजाला तो हो लेने देती। "
पंडिताइनगुस्से में भरी हुई थी। जवाब नहीं दिया, बल्कि मूसल से और भी जोर- जोर से चोट करने लगी। बार-बार पूछने पर पंडिताइन ने कहा कि कई दिन से तुम्हें नमक लाने के लिए कह रही हूँ। खाने के समय तो ऊपर से भी नमक चाहिए। अब रात लेकर आए भी तो इतना बड़ा ढेला। सिलौट पर कैसे कूटती इसे? इसलिए ऊखल में कूट रही हूँ।
पंडित जी बोले-" ये क्या अनर्थ कर दिया तुमने? " पर फ़िर वे संभल गए। पंडिताइन को पता चला कि यह नमक नहीं, इंसानी खोपडी है तो उन्हीं की खोपडी ठिकाने से बाहर कर दी जायेगी। बस इतना ही बोले कि यह नमक खाने लायक नहीं है। मैं दूसरा ले आता हूँ।
पंडित जी समझ गए कि क्यों खोपडी की रेखाएं बता रही थीं कि अभी इसकी और भी दुर्गत लिखी है। अब भला, इससे बढ़ कर और क्या दुर्गति किसी की हो सकती है?
यह कहानी याद आई, जब तोषी छोटी थी। वह मटन खा रही थी, जब उसे हड्डी के भीतर का बोन मैरो चाहिए था। संयोग से हड्डी बहुत मजबूत थी। बोन मैरो निकल नहीं पा रहा था। मेरी ननद तब वह हड्डी का टुकडा उठा कर ले गई और सिलौट पर उसे लोढे से कूट कूट कर टुकडे -टुकडे किया और फ़िर उसमेंसे बोन मैरो निकाल कर उसे दिया। उस हड्डी की दुर्गति देख कर मुझे इस कहानी की याद आ गई थी। आज भी अचानक से यह कहानी याद आ गई तो सोचा, आपके लिए भी प्रस्तुत कर दूँ।

No comments: