Thursday, May 28, 2009
एक स्त्री को क्या चाहिए?
नवयुवक राजा को थोड़ी उत्सुकता हुई कि ऐसा कौन सा सवाल है, जिसके लिए उसे एक साल की मोहलत दी जा रही ही? राजा ने उसे प्रश्न सुनाया- "एक स्त्री क्या चाहती है?" सुनने में यह सवाल बड़ा सीधा-सादा सा था. मगर इसके लिए एक साल की मोहलत ही यह बता रही थी यह सवाल उतना सीधा नहीं है. फिर भी इस सवाल के मार्फ़त से नवयुवक राजा को जीवन दान मिल रहा था, इसलिए उसने इस चुनौती को स्वीकार कर लिया. राजा ने नवयुवक राजा को उसके घर भेज दिया और कहा कि हालांकि वह अपने घर पर रहेगा, लेकिन वह उसकी निगरानी में है, वह यह याद रखे."
दिन पर दिन बीतते गए,. नवयुवक राजा सभी से इस सवाल का जवाब पूछता रहा, मगर उसे कोई भी संतोषजनक
उत्तर नही मिला. अब वह परेशान होने लगा. उसे लगने लगा कि अगर वह इस सवाल का जवाब नहीं दे पाया तो उसका मरना तय है. उसे किसी ने सलाह दी कि नगर के बाहर एक चुडैल रहती है. वही इस सवाल का सही जवाब दे सकती है. लेकिन उसके पास जाना इतना आसान नहीं है. वह पहले तो किसी की बात नहीं सुनती, फिर सुनती भी है तो इसके लिए वह मनमानी फीस वसूलती है और उसकी फीस में पैसे से लेकर किसी की जान लेना तक शामिल है.
नवयुवक राजा ने तय किया था कि वह उसके पास नही जाएगा. लेकिन तेजी से ख़त्म होती जा रही मियाद ने उसे मज़बूर कर दिया उसके पास जाने के लिए. चुडैल ने बड़ी मुश्किल से उसकी बात सुनी. फिर उसने सवाल के जवाब के लिए अपनी शर्त रखी. उसने कहा कि वह उसके लेखक मित्र से शादी करना चाहती है. नवयुवक राजा के यह सुनकर होश उड़ गए. वह लेखक राजा का बहुत अच्छा मित्र था और बहुत ही ग्यानी औए विद्वान था. उसकी शोहरत पूरे देश में थी. उस सीधे-सादे, छल-कपट से रहित व्यक्ति की शादी इस चुडैल से करवा देना, वह भी अपनी जान की खातिर, यह उसे मन न भाया. और वह चुपचाप वहां से चला आया.
मित्र को जब इस बात का पता चला, तब उसने कहा कि वह उस चुडैल से शादी करने के लिए तैयार है, अगर ऐसा करने से उसके प्रिय मित्र की जान बच जाती है. नवयुवक राजा बड़ी मुश्किल से इस बात के लिए तैयार हुआ.
लेखक मित्र की शादी उस चुडैल से हो गई. उस चुडैल ने अब नवयुवक राजा को उसके सवाल का जवाब दिया, जो इस प्रकार है - "स्त्री अपनी जिंदगी की नियामक या निर्णायक खुद ही हो."
साल भर का समय समाप्त हो गया था. नवयुवक राजा ने पडोसी देश के राजा को अपना उत्तर सुनाया. राजा बहुत खुश हुआ और उसे उसने अपनी कैद से आज़ाद करके उसे जीवन दान दे दिया.
इधर लेखक मित्र अपनी सुहाग रात के लिए अपने कमरे में गया. उसका दिल बहुत बुरी तरह से धडक रहा था. वह समझ नही पा रहा था कि आज उसके साथ क्या होनेवाला है? एक चुडैल के साथ सुहाग रात? परन्तु जब वह कमरे में गया तब वह यह देख कर दंग रह गया कि वहा एक अत्यनत ख़ूबसूरत लड़की सुहाग सेज पर बैठी हुई है. लड़की ने बताया कि उसके साथ शादी करने से अब उसके पास दो तरह की ताक़त आ गई है.- १ वह आधे समय तक ख़ूबसूरत और आधे समय तक बदसूरत रह सकती है. २. वह सारे समय बदसूरत रह सकती है. वह यह तय करे कि क्या वह दिन में ख़ूबसूरत रहे और सभी को प्रसन्न रखे या रात में ख़ूबसूरत रहकर उसकी रातें खुशनुमा बनाए.
मित्र की समझ में कुछ भी नही आया. उसने नवयुवक राजा मित्र से इस बाबत पूछा. अबतक नवयुवक राजा अपने पडोसी देश के राजा के सवाल का मर्म अच्छी तरह समझ गया था. उसने मित्र को सलाह दी कि यह निर्णय तुम उसी पर छोड़ दो. मित्र ने ऐसा ही किया. उसकी पत्नी ने जवाब दिया कि आधा समय बदसूरत रहकर वह उस समय अपने संपर्क में आये लोगों का कुछ भी भला नहीं कर पायेगी, रात में भी बदसूरत रह कर वह उसे दुखी करेगी. इसलिए वह यह फैसला लेती है कि वह सारे समय ख़ूबसूरत बनी रहेगी.
Monday, May 18, 2009
दूसरों को दोष देने से पहले
दूसरे दिन आदमी ४० फीट की दूरी पर खड़ा हो गया और उसने अपनी पत्नी से पूछा- "आज नाश्ता क्या बना है?"। उसे कोई जवाब नहीं मिला। फ़िर वह ३० फीट की दूरी पर गया और फ़िर से वही सवाल पूछा की आज नाश्ता क्या बना है?" उसे फ़िर जवाब नहीं मिला। अब वह २५ फीट की दूरी पर गया और फ़िर से सवाल दुहराया। जवाब न मिलाने पर २० फीट की दूरी पर जा कर उसने वही सवाल फ़िर से पूछा। क्रमश: वह दूरी घटाता गया और पत्नी से वही सवाल दुहराता गया।जवाब न मिलाने के कारण वह काफी खीझ रहा था। उसका गुस्सा और चिढ दोनों बढ़ते जा रहे थे।
अंत में जब वह ५ फीट की दूरी पर रह गया तब उसने फ़िर से अपनी पत्नी से पूछा, "क्या अब तुम बताओगी की आज नाश्ता क्या बना है?" पत्नी ने भी उसी चिढ और खीझ के साथ जवाब दिया- "तब से लेकर अबतक सात बार बता चुकी हूँ की आज नाश्ते में सैड्विच बना है। और कितनी बार बताऊँ?"
Thursday, May 14, 2009
ज्ञान की कीमत
उस बूढे को बुलाया गया. बूढे ने पूरे जहाज को अच्छी तरह से देखा-परखा. फिर उसने अपने बेग मेंसे एक हथौडा निकाला और इधर-उधर हलके से ठोका. फिर उसने इंजन के पास कि एक जगह को देखा, गहनता से उसका निरीक्षण किया. फिर निशाना साध कर उसने एक भरपूर वार हथौडे का उस जगह पर किया. सबने हैरानी से देख कि इंजन ठीक हो गया और वह काम करने लगा. सभी बड़े प्रसन्न हुए. सभी ने बूढे की जी खोल कर तारीफ की. बूढा वहां से चला गया.
कुछ दिनों के बाद उस बूढे का बिल आया . बिल पर रक़म लिखी थी- १०,०००/- रुपये. जहाज का मैनेजर चौंका- "अरे, इसने ऐसा क्या किया है कि दस हज़ार का बिल थमा दिया है. एक हथौडा ही तो मारा है. उसने बूढे से भी यही बात कही. बूढे ने कहा कि वह अपने बिल को मदवार शुल्क के रूप में भेज तःः है कि किस मद में कितना पैसा उसने लिया है.
मैनेजर के पास दूसरा बिल गया. उसमें बिल का विवरण था-
हथौडा मारने की फीस- रु. १०/-
सही जगह हथौडा मारने की फीस- रु ९९९०/-
Sunday, May 10, 2009
मन की आँखें
यह सिलसिला कई दिनों तक चलता रहा. दूसरा मरीज़ अब काफी बेहतर महसूस कर रहा था. नर्स ने उससे कहा कि अब शायद उसे भी कुछ देर के लिए बैठने की इजाज़त मिल जाये. यह सुन कर वह बड़ा खुश हुआ. उसने सोचा कि अब जब वह बैठ पायेगा, तब वह भी खिड़की के बाहर के सारे नजारे अपनी आँखों से देख पायेगा.
एक दिन सुबह हुई. नर्स जब मरीजों को उठाने आई तो उसने पाया कि पहलेवाला मरीज़ रात में ही सोये में ही चला बसा. दूसरेवाले मरीज़ को बहुत दुःख हुआ. नर्स और उसने मृतक की आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना की. अस्पताल के कामगार उसके शव को लेकर चले गए. दूसरे मरीज़ ने नर्स से अनुरोध किया कि वह उसे पहलेवाले मरीज़ के बेड पर शिफ्ट कर दे. नर्स खुशी-खुशी मान गई.
दूसरा मरीज़ तसल्ली सकूं था. उसने सोचा कि अब वह अपनी आँखों से बाहर के नजारे देख सकेगा. उसने अपने को कोहनी के सहारे टिकाया और अधलेटे से हो कर उसने खिड़की के बाहर देखा. उसे यह देख कर बड़ा झटका लगा कि वहां से उसे पेड़ - पौधे, चिडिया, फूल आदि कुछ भी नहीं दिखाई दे रहे थे. उन सबके बदले वहां एक उदास, उजाड़ सी दीवाल थी. दूसरा मरीज़ कुछ समझ नहीं पाया. उसने नर्स को बुला कर पूछा कि इस बेड से वह मरीज़ उसे जो रंग-बिरंगे नजारे दिल्हाता था, वे सब अब कहा गए. नर्स को बहुत हैरानी हुई. वह मरीज़ की बात को समझ भी नहीं सकी. मरीज़ ने उसे पहलेवाले मरीज़ की बात बताई. अब तो नर्स को और भी हैरानी हुई. उसने कहा-" इतने सारे वर्णन वह आपको सुनाता था. आर्श्चय है कि वह ऐसा कैसे कर लेता था. वह तो जन्म से ही अंधा था. अब चौकने की बारी दूसरे मरीज़ और आप सबकी है.
Wednesday, May 6, 2009
कितनी मेहनत?
उसी आश्रम में एक ऐसा भी छात्र था जो न तो जंगल जाता और न ही सूखे पत्ते चुनता। रात में वह बाक़ी अन्य छात्रों के साथ बैठ कर सूखे पत्ते जला कर पाठ भी याद नहीं करता था। सभी छात्र उसका खूब मज़ाक उडाते और उसे बेवकूफ कहते।
परीक्षा का दिन आया। सभी ने परीक्षा दी। उस छात्र ने भी दी। सभी अन्य छात्रों ने उसकी खूब चुटकी ली। वे सभी इस बात से आश्वस्त थे की वह तो फेल होगा ही होगा।
परीक्षा का परिणाम आया और सभी यह देखकर हैरत में पड़ गए की वह छात्र अव्वल आया है। उसे सर्वोच्च अंक मिले हैं। बाक़ी सभी छात्रों के क्रोध की सीमा नहीं रही। वे सब अपने गुरु जी के पास गए और उस छात्र पर आरोप लगाया की उसने परीक्षा में अवश्य ही कदाचार का उपयोग किया है, इसीलिए उसे सबसे अधिक अंक आए हैं।
गुरु जी ने उस छात्र को बुलाया और पूछा की "तुम्हें सबसे अधिक अंक कैसे आए, जबकि तुम बाकियों के साथ न तो जंगल जाते हो, न सूखे पत्ते चुनकर लाते हो और न ही इन सबके साथ रात में बैठ कर इन सूखे पत्तों के प्रकाश में अपना पाठ ही याद करते हो। और तो और, तुम्हें पढ़ते हुए आज तक किसी ने नहीं देखा है?"
छात्र बोला-"यह सही है की मैं आज तक न तो जंगल गया और न ही जंगल से सूखे पत्ते चुन कर लाया और ना ही कभी रात में बाकियों के साथ बैठ कर सूखे पत्ते के प्रकाश में पाठ ही याद किया। मगर इसका यह मतलब नहीं की मैंने पढाई नहीं की है। भगवान भास्कर दिन भर अपना प्रकाश इस धरती और इस पर के जीव के लिए बिखेरते हैं। वे इस प्रकाश के एवज में किसी से कुछ चाहते भी नहीं। मैंने उनके इस आशीष का उपयोग जंगल में जा कर सूखे पत्ते चुनने के बदले अपने अध्ययन में किया। मैं दिन में ही अपने सारे पाठ याद कर लिया करता हूँ। लोग मुझे पढ़ता हुआ इसलिए नहींं पाते हैं की जिस समय मैं पढ़ता हूँ, ये सभी जंगल में सूखे पत्ते चुन रहे होते हैं। दिन के प्रकाश में पाठ याद भी अच्छी तरह से होता है, इसलिए मुझे सर्वोच्च अंक आए हैं।"
छात्र की बात सुन कर गुरु जी सहित सभी सोच में पड़ गए। सभी ने यह अनुभव किया की यह कह तो सही रहा है। और उस दिन से जंगल जा कर सूखे पत्ते चुन कर लाने और रात में उन सूखे पत्तों को जला कर उनकी रोशनी में पाठ याद कराने की प्रथा समाप्त हो गई।
Monday, May 4, 2009
लालसाएं- कितनी अनंत?
आदमी ने खाट पर सोये हुए आदमी को जगाते हुए पूछा की क्या ये बर्तन उसके बनाए हुए हैं?
सोये हुए आदमी ने जगाकर उसे ऐसे देखा जैसे वह कितना अहमक सवाल उससे कर रहा है। फ़िर उसने हामी भरते हुए कहा की ये बर्तन उसने बनाये हैं।
आदमी ने फ़िर पूछा- "क्या ये बर्तन बेचने के लिए हैं?"
बर्तानावाले ने फ़िर उसे देखा। उसके चहरे पर वही भाव थे कि कैसा बेवकूफाना सवाल है। फ़िर उसने हां में अपनी गर्दन दुलाई।
आदमी ने फ़िर पूछा, "मगर यहाँ तो तुम्हें इन बर्तनों के ज़्यादा पैसे नहीं मिलते होंगे। तुम ऐसा क्यों नहीं करते कि तुम शहर चले जाओ।"
"इससे क्या होगा?"
"तुम्हें अपने बर्तन के अच्छे दाम मिलेंगे।
:इससे क्या होगा?"
"तुम्हारे पास ज़्यादा पैसे हो जायेंगे।"
"इससे क्या होगा?"
फ़िर तुम उन पैसों से एक बड़ा सा घर खरीद सकते हो।"
"इससे क्या होगा?"
"तुम अपने घर में तरह-तरह के आराम के सरो-सामान रख सकते हो।"
"इससे क्या होगा?"
तुम्हारे पास ज़्यादा पैसे होंगे तो लोग तुम्हें इज्ज़त देंगे, तुम्हारा मान-सम्मान बढेगा।"
"इससे क्या होगा?"
"फ़िर तुम आराम से अपना जीवन सो कर गुजार सकते हो।"
"तो अभी क्या कर रहा हूँ?" आदमी ने जवाब दिया और अपनी चादर तान कर सो गया।
Monday, April 27, 2009
धार भी तो चाहिए!
पहले दिन वह लकडी काटने गया। वह पूरे उत्साह में था। कुल्हाडी भी धारदार थी। उस दिन उसने खूब लकडी काती। वह बेहद खुश था की उसने अपनी नौकरी का सिला मालिक को दिया है। दूसरे दिन वह फ़िर लकडी काटने गया। आज उसने कल की तुलना में कम लकडी काती। फ़िर भी वह संतुष्ट था। अगले दिन उससे और भी कम लकडी कटी। वह तनिक नाखुश हुआ। फ़िर तो यह सिलसिला बनता चला गया। उसके काम में लगातार कमी आती गई। वह अपने -आप से नाराज़ सा रहने लगा। उसे भय भी हुआ की उसके काम की यह गति देख कर मालिक कहीं उसे नौकरी से निकाल ना दें और अगर ऐसा हुआ तो वह एक बार फ़िर से बेकार और बेरोजगार हो जायेगा।
अंत में वह एक दिन मालिक क पास गया और अपनी परेशानी मालिक से कह सुनाई। मालिक ने बड़े ध्यान से उसकी बातें सुनीं और कहा की " तुम ये बताओ की इस बीच तुमने अपनी कुल्हाडी की धार कब तेज़ की थी? तुम उससे काम तो लगातार लेते जा रहे हो, मगर यह देखने की कोशिश नहीं कर रहे हो की उसकी भी अपनी कोई ज़रूरत है या नही? धार चाहे कुल्हाडी की हो या अपनी मेधा की, उसे लगातार तेज़ करना ज़रूरी है। इससे काम में तेजी भी आती है और नवीनता भी।
Thursday, April 16, 2009
नज़रिया
जिस समय इस कम्पनी ने अपनी मार्केटिंग टीम उस गाँव में भेजी थी, उसी समय एक दूसरी कम्पनी ने भी अपनी टीम वहाँ भेजी। वह भी जूते-चप्पल की ही कम्पनी थी। उसकी टीम को भी दो महीने दिए गए थे। दो महीने के बाद इस कम्पनी ने भी अपनी रिपोर्ट कम्पनी को भेजी। उसमें लिखा हुआ था की यहाँ पर व्यापार की संभावना बहुत ज़्यादा है, क्योंकि यहाँ कोई भी व्यक्ति जूते-चप्पल नहीं पहनता।
Tuesday, April 7, 2009
जिससे घर भर जाए.
उसके तीन बेटे थे। उसने एक दिन तीनों को अपने पास बुलाया और सभी को सौ-सौ रुपये दिए और कहा की वे सभी इन पैसों से एक ऎसी छीज खरीद कर लायें, जिससे उनका यह घर पूरी तरह से भर जाए। उसने बेटों को सावधान किया और कहा की इसके अलावे वह और पैसे खर्च नहीं कर सकता है। इतने ही पैसे से उसे सामान लाना है। और हाँ, शाम के पहले उन सभी को वापस लौट कर भी आना है।
तीनों बेटे पैसे ले कर चले गए। शाम में वे तीनों इकट्ठे हुए। पिटा ने तीनों से पूछा की वे क्या-क्या ले कर आए हैं? पहले ने कहा की वह इन पैसों से भूसा खरीद कर लाया है। और यह कहकर उसने पूरे घर में भूसा फैला दिया। घर का एक कोना भूसे से भर गया। अब बारी दूसरे की थी। उसने कहा की वह इन पैसों से रुई ले कर आया है" उसने रुई के बोरे घर में पलट दिए। घर का दूसरा कोना रुई से भर गया। अब बारी तीसरे की थी। तीसरा बोला, "मैं जब बाज़ार जा रहा था, तब एक भूखे को देखा जो भूख से बिलकुल चल नहीं पा रहा था। मैंने इन पैसों से उसे खाना खिलाया। और आगे बढ़ने पर मुझे एक बच्चा मिला जो रो रहा था। कारण पूछने पर उसने बताया की उसके पास किताब न होने के कारण शिक्षक ने उसे क्लास से बाहर निकाल दिया है। बचे हुए पैसे से मैंने उसे वह किताब दिला दी। फ़िर थोड़ा आगे बढ़ा तो एक स्त्री कराह रही थी। वह बीमार थी, मगर उसके पास दवा के लिए पैसे नहींथे। मैंने अब जो बचे हुए पैसे थे, उसमें से दवा लेकर उसे दी। अब मेरे पास कुछ ही पैसे बच गए थे, मैंने उनसे ये मोमबत्तियां खरीद ली हैं। मैंने सोचा की इनको जलाने से पूरा घर रोशनी से भर जायेगा।" यह कहते हुए उसने सभी मोमबत्तियां जला दीं। और वाकई घर रोशनी से नहा उठा।
Thursday, April 2, 2009
सत्य बोलो, प्रिय बोलो
उस रास्ते से एक आदमी भी गुजरा। उसने उस लडके को, फ़िर उसकी टोपी को और उसके बोर्ड को देखा। उसने उसकी टोपी में कुछ पैसे डाले और बोर्ड पर का लिखा फ़िर पढा। उसने बोर्ड का लिखा मिटा दिया और उसके बदले कुछ और लिखा। फ़िर बोर्ड उसने इस प्रकार से रखा की अधिक से अधिक लोग उसे देख सकें। इसके बाद वह वापस अपने रास्ते चला गया।
अब लोग आते, बोर्ड पढ़ते और पैसे उसकी टोपी में दाल जाते। शाम तक उसकी टोपी पैसों से भर गई। शाम में वह आदमी फ़िर आया और लडके से पूछा की दिन भर की क्या हालत रही। लडके ने जानना चाहा की आप वही हैं न जो सुबह आए थे और जिन्होंने बोर्ड पर नया कुछ लिखा था?" आदमी ने हां में जवाब दिया। लडके ने कहा की उसके जाने के बाद तो जैसे चमत्कार हो गया। जो भी आता, कुछ पैसे दे कर जाता। आख़िर आपने उसमें क्या ऐसा लिख दिया?" आदमी ने कहा की मैंने बस सत्य और प्रिय लगनेवाली बात ही लिखी है। मैंने लिखा है की "आज का दिन कितना अच्छा है? लेकिन मैं इसे अपनी आंखों से नहीं देख सकता।"
Wednesday, April 1, 2009
कबीर का ज्ञान
कबीर दूसरे गाँव गए। वहाँ भी उनहोंने व्याख्यान दिया। वहां भी सभी उनसे प्रभावित हो कर उनके संग हो लिए। इस तरह से वे गांग-गाँव घूमते और काफिला लंबा डर लंबा होता चला गया।
एक दिन जब वे किसी गाँव से लौट रहे थे तब वे एक दर्रे से गुजरे। वहाँ अँधेरा था। जगह भी संकरी थी। कुछ लोग मारे भय के ठहर गए। कबीर आगे बढ़ते गए, भीड़ कम होती गईउनहोंने सभी को पुकारा। सभी ने कहा की आगे बहुत अँधेरा है। वे सब आगे बढ़ने से लाचार हैं। कबीर और आगे बढे। जैसे-जैसे वे आगे बढ़ते गए, अँधेरा गहराता गया। लोगों की भीड़ भी पीछे और पीछे छूटती गई। अंत में वे एक दम सघन अन्धकार में पहुँच गए। इतना की हाथ को हाथ ना सुझाई दे। कबीर ने सभी को पुकारा। पर अब वहाँ कोई नहीं था। कबीर को केवल अपनी ही आवाज़ गूंजती सुनाई दी। वे अब अकेले आगे बढे। बढ़ते गए। अँधेरा अभी भी उतना ही था। बहुत आगे बढ़ने पर उन्हें प्रकाश की किरण फूटती दिखाई दी। जैसे-जैसे वे आगे बढ़ते गए, प्रकाश तेज से तेजतर होता गया। वही तेज अब उनके चहरे पर भी आता गया। जो पीछे छूट गए थे, वे पीछे ही रह गए।
Tuesday, March 24, 2009
प्रार्थना
ड्राइवरसज्जन के नज़दीक पहुंचा। उसने वह कागज़ उन्हें दिखाया। उस कागज़ पर एक बच्चे की तस्वीर थी। ड्राइवरने कहा की यह बच्चा उसका नाती है। वह जीवन और मौत के कगार पर झूल रहा है। उसे ब्लड कैन्सर है और abhii वह अन्तिम स्टेज पर है। वह अस्पताल में है और मौत से संघर्ष कर रहा है। सज्जन ने सोचा की आर्थिक मदद aarthik madad की शायद बात सोच रहा है। उनहोंने अपनी जेब की और हाथ बढाया। ड्राइवर ने तुतंत उन्हें रोकते हुए कहा की वह उनसे किसी भी तरह की आर्थिक मदद की आस लेकर नहीं आया है। वह बस इतना भारत चाहता है की वे उस बच्चे के लिए प्रार्थना भर कर दें।
सज्जन थोड़े पेशोपेश में पड़ गए। वे किसी भी तरह की ध्हर्मिक बातों या पूजा-प्रार्थना में यकीन नहीं करते थे। मगर उस ड्राइवर की बातों में कुछ ऐसा था की वे अपने को रोक नहीं सके। आश्चर्य की उस दिन उनका बहुत अच्छे से बीता। सारे काम भी समय पर हो गए। मन भी बहुत शांत लग रहा था।
ड्राइवर उसके बाद से कई दिनों तक नहीं आया। सज्जन रोज उसकी राह तकते। उन्हें बच्चे की हालत जानने की उत्सुकता थी। एक दिन ड्राइवर दिखा। सज्जन ने उसका हाल समाचार पूछते हुए फ़िर उसके नाती के बाबत पूछा। ड्राइवर ने कोई जवाब नहीं दिया। थोड़ी देर के मौन के बाद वह बोला की उसका नाती तो उसी शाम को गुजर गया। लेकिन उसे इस बात का संतोष है की अन्तिम समय में वह बहुत शांत था। उसकी तकलीफ एक दम से कम हो गई थी। यह सब आपकी प्रार्थना का फल है। मैं इसके लिए आपको धन्यवाद देना चाहता हूँ।
सज्जन ने ड्राइवर kaa haath pakad लिया। उनके मुंह से कोई भी बात नहीं निकली। बस आंखों से चाँद boonden गिरीं और धरती में viliin हो gaiin।
Thursday, March 19, 2009
एक बार एक छोटी सी बच्ची भीख मांग रही थी। उसके कपडे बेहद फटे-पुराने थे। उसकी आंखों में बहुत दीनता थी। आवाज़ में बेहद करुना थी। लोग-बाग़ उसकी और देखते और अवहेलना से मुंह फेर लेते।
एक लड़का भी उस दिन उस रास्ते से गुजरा। उसने भी उस बच्ची को देखा। उसने भी उसे देखा कर अपनी नज़रें घुमा लीं और अपने रास्ते चला गया।
घर पहुँचने पर उसकी माँ ने बड़े प्रेम से उसका स्वागत किया, उसे अपनी गोद में बिठाया, उसका पसीना अपने आँचल से पोछा, उसे चूमा। फ़िर उसके मुंह-हाथ धुलवाए और उसके लिए तरह-तरह की खाने-पीने की चीजें ले आई। बच्चे को अब उस बच्ची की याद हो आई। उसका मिला कुचैला चेहरा, दीं वाणी, फटे कपडे। वह कुछ भी खा-पी नहीं सका। उसे अचानक माँ का पूजा घर याद आया और याद आए भगवान। उसने भगवान से कहा की "तुमने उस बच्ची की इतनी ख़राब हालत कर के रखी है। तुम उसकी हालत ठीक कराने के लिए कुछ करते क्यों नहीं हो?"
भगवान कहते हैं की प्रकट हुए और मुस्कुराते हुए बोले, "कौन कहता है की मैं कुछ करता नहीं हूँ। देखो, मैंने तुम्हें बनाया है और तुम्हें उससे मिलवा भी दिया है।"
Wednesday, March 18, 2009
भगवान् से भेंट
रास्ते में उसे एक बगीचा मिला। वह थक गया था। इसलिए उस बगीचे में उसने तनिक आराम कराने और कुछ खा- पी लेने की सोची। वह एक पेड़ की छाया के नीचे बैठ गया। उसी पेड़ के नीचे एक युवक भी था। उसके चहरे पर बड़ी असीम शान्ति व् प्रसन्नता खेल रही थी। बच्चा उसकी और देखने लगा। बच्चे को अपनी और देखते पा कर युवक मुस्कुराया। बच्चे को बड़ा अच्छा लगा। वह वहीं बैठ गया। थोड़ी देर बाद उसने अपने बैग में से खाने का सामा निकाला और युवक की और बढ़ा दिया। युवक ने मुस्कुराते हुए उसे ले लिया। दोनों खाने लगे। फ़िर युवक एक किताब पढ़ने लगा। बच्चे ने भी एक किताब निकाली और पढ़ने लगा। दोनों एक -दूसरे की और बीच-बीच में देखते और मुस्कुरा देते।
दोपहर हो गई। अब युवक ने अपने थैएले में से खाना निकाला, बच्चे को दिया और दोनों खाने लगे। वे खाते जाते और एक-दूसरे को देख कर मुस्कुराते जाते। खाना ख़त्म होने के बाद दोनों उसी पेड़ के नीचे सो गए। शाम होने पर दोनों उठे। बच्चे ने और युवक ने भी अपने-अपने थैले ऐ खाने-पीने का सामान निकाला, एक दूसरे को दिया और खाने लगे। फ़िर वे एक दूसरे को देख कर मुस्कुराते। हैरानी की बात थी की सुबह से शाम हो गई, मगर दोनों में से किसी ने भी किसी से बात नहीं की। बस एक दूसरे को चीजें देते रहे और खाते-पीते रहे और मुस्कुराते रहे।
अँधेरा होने पर बच्चा घर को लौटा। आज उसके चहरे पर बड़ा तेज था। माँ ने पूछा की वह कहाँ से आ रहा है? बच्चे ने जवाब दिया की वह आज भगवान से मिलकर आ रहा है। भगवान् बहुत युवा हैं, बहुत अच्छे हैं और सदा हंसते ही रहते हैं। इधर युवक भी घर पहुंचा। आज उसके चहरे पर भी बड़ा तेज़ था। उससे भी उसकी माँ ने पूछा युवक ने जवाब दिया किया आज वह भगवान के साथ था। दोनों साथ रह, साथ-साथ खाया-पीया। साथ-साथ सोये आयुर साथ-साथ ही वहाँ से विदा हुए। केवल एक ही बात प्रमुख रही की भगवान तो बहुत छोटी उमर के हैं, फ़िर भी उसे उनके साथ बड़ा अच्छा लगा।
Tuesday, March 17, 2009
जीवन का क्विज़
एक बच्ची ने अपनी बाई का नाम पूछ कर लिख भेजा। सवाल करता ने फ़िर से पूछा की आप उसे क्या कहकर बुलाती हैं? बच्ची ने कहा की "बाई" प्रशनकर्ता ने कहा की "हमारी सभ्यता व संस्कृति में अपने से बड़ों को बुआ, चची, दीदी आदि संबोधन से बुलाने का रिवाज है और यही आपको आगे चलाकर विनम्र बनाएगा। आज अंकल और आंटी का ज़माना है तो कम से कम आप उसे आंटी तो कह सकती हैं। "
यह सीख हम अपने बच्चों या अपने आस-पास को दे सकते हैं और हाँ, सबसे पहले ख़ुद इस सीख पर अमल करें तो कैसा रहेगा?
Sunday, March 15, 2009
स्टील की थाली और लकडी के स्टूल
एक अशक्त व् वृद्ध व्यक्ति अपने बेटे, बहू और पोते के साथ रहता था। वह इतना अशक्त था की जब वह खाने बैठता तो उसके हाथ हिलाते रहते। हाथ के हिलाने से खाना बिखर जाता। टेबल गंदी हो जाती। कई बार प्लेट टकरा जाती या टूट जाती। खाना भी वह काफी देर तक खाता रहता। बहू को उसके प्लेट का इंतज़ार करना पद्रता। यह सब देख कर बेटे -बहू आपस में खूब चिढ़ते रहते।
एक दिन बहू ने बेटे से कहा, " इस तरह रोज-रोज हमलोगों का खाना ख़राब हो जाता है। तुम ऐसा करो की उनके लिए एक स्टील की थाली ले आओ। उसी में हम इन्हें खाना दिया करेंगे। साथ ही, एक अलग स्टूल बनवा दो, उस पर हम इन्हें खाना दे दिया करेंगे। इससे प्लेट भी नहीं टूटेगी और हमलोगों की टेबल भी गंदी होने से बच जाएगी।
बेटे ने वैसा ही किया। अब बूढा खाता तो बाद में उसकी प्लेट उठानेवाल्ल कोई नहीं रहता। बूढे को ख़ुद ही अपनी प्लेट साफ़ करनी होती।
बूढे का प्रेम अपने पोते पर और पोते का अपने दादा पर बहुत अधिक था। उसने अपने माँ-बाप से दादा जी के साथ ऐसा कराने की वज़ह पूछी। मगर किसी ने भी ढंग से कोई जवाब नहीं दिया, बल्कि वे उस जवाब को ताल गए। पोते ने कुछ भी नहीं कहा।
दिन बीतते गए। पोते को जब भी माँ-बाप से कुछ पैसे मिलते, वह उसे जमा करता। बेटे की इस जमा कराने की आदत से माँ-बाप बारे प्रसन्न रहते। एक दिन उनहोंने बाते से पूछा की वह इन पैसों का क्या करेगा? बेटे ने जवाब दिया की वह इन पैसों से दो स्टील की थाली खरीदेगा और दो स्टूल बनवाएगा, ताकि जब वे लोग बूढे होंगे तब वह इसी स्टील की प्लेट में इसी स्टूल पर बिठा कर उन लोगों को खाना आदि दिया करेगा।
माँ-बाप को जैसे सौंप सूंघ गया। उस दिन से उनहोंने पिटा को अपने साथ टेबल पर बिठाना शुरू कर दिया। बर्तन भी वही दिए, जिसमें वे सब खाते थे। बहू उनके खाने के ख़त्म होने की राह देखती। बेटा उनके साथ अच्छे से बात कराने लगा।
Thursday, March 12, 2009
मदद अनमोल
जब उसने दूसरे द्वार की घंटी बजाई तो वह तनिक घबडा गया। एक अत्यन्त सुंदर युवती ने दरवाजा खोला। युवक उसे देख कर घबडा गया। भोजन माँगने के बदले उसके मुंह से 'एक ग्लास पानी' निकला। उसकी हालत देख कर युवती समझ गई की उसे भूख लगी है। वह उसके लिए खाने के लिए कुछ चीजें ले आई। लडके ने खा लिया। फ़िर बोला, 'इसके कितने पैसे हुए?' युवती मुस्कुरा कर बोली की इसके कुछ भी पैसे नहीं बनते हैं। उसकी माँ ने सिखाया है की किसी की सहायता कर के उससे कुछ पाने की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए।'
समय बीतता गया। वह युवती अब एक बुजुर्ग बन गई थी। एक बार वह काफी बीमार पडी। उसे अस्पताल में भारती कराया गया। काफी दिनों तक उसका इलाज चलता रहा। बुजुर्ग महिला की यह माली हालत नहीं थी की वह उस अस्पताल का इतने दिनों तक का खर्च उठा सके। वह इस चिंता में थी की वह कैसे यहाँ का सारा हिसाब-किताब चुकता कर पाएगी।
आखिअरकार उसके जाने का दिन आ ही गया। वह अस्पताल के प्रशासन विभाग में पहुँची। उसने अपनी माली हालत बयान करनी चाही ही थी की प्रशासन वालों ने कहा की 'आप जा सकती हैं। आपका बिल भरा जा चुका है।' महिला के आश्चर्य की सीमा नहीं रही। प्रशासन वालों ने उसके हाथ में एक पात्र थमा दिया। उसमें लिखा था, 'एक प्लेट नाश्ते के बदले।' नीचे किसी डाक्टर के हस्ताक्षर थे। महिला ने हैरत से देखा। प्रशासन वाले ने कहा की यह हमारे डाक्टर का पात्र है और उनहोंने सारा बिल का भुगतान यह करते हुए कर दिया था की मेरे ऊपर इनका बहुत बड़ा क़र्ज़ है। आज चुकाने का वक़्त आया है। महिला को अपना इलाज कर रहे डाक्टर याद आए और वह घटना भी, जब उसने एक लडके की मदद की थी।
Sunday, March 8, 2009
सोच का अन्तर
यत्र-तत्र सर्वत्र घूमनेवाले दो साधू एक नदी के किनारे से गुजर रहे थे। नदी किनारे एक युवती थी। उसे नदी पार करना था। परन्तु उस समय वहां कोई नाव नहीं थी और नदी का पानी भी बहुत गहरा था। उसे तैरना भी नहीं आता था। लिहाजा, वह नदी पार कर नहीं पा रही थी। दोनों में से एक साधू ने उसे प्रस्ताव दिया की वह उसकी पीठ पर सवार हो जाए, वह उसे नदी पार करवा देगा।" युवती मान गई। साधू ने उसे पीठ पर बिठाया और नदी पार करा दिया। फ़िर वह दुबारा इस पार आया जहां उसका दूसरा साथी उसकी राह तक रहा था।
वे दोनों फ़िर से साथ-साथ चलने लगे। दूसरे साधू का चेहरा उतारा हुआ था। वह कुछ परेशान सा लग रहा था। वह अनमने तरीके से चल रहा था। पहलेवाले साधू ने उससे पूछा की बात क्या है?" दूसरे साथी ने कहा की "हमलोग जिस सम्प्रदाय से आते हैं, उसमं मोह, माया आदि की कोई जगह नहीं होती। स्त्रियों के लिए तो खासा तौर से उसकी सांगत की मनाही है। उसे देखना या बात करना भी निषिद्ध है। और ऐसे में तुमने उससे न केवल बात की, बल्कि उसे अपनी पीठ पर लाड भी लिया और नदी पार भी करवाया। इतनी देर तक तुम उस स्त्री के परस और सांगत में रहे?"
पहलेवाले साधू ने उत्तर दिया, "अच्छा? मैं जिस काम को करके भूल भी गया, उसे तुम अभी तक उसे याद कर रहे हो? जिस स्त्री को मैंने पीठ पर लादा, उसकी शकल, परस तो मुझे पाता भी नहीं और तुम इस बात को अभी तक दिमाग में लादे घूम रहे हो?
Friday, March 6, 2009
गुरु नानक और भोजन
एक बार गुरु नानक अपने शिष्यों के साथ कहीं जा रहे थे। एक जगह उनहोंने विश्राम लिया। वहाँ के जमींदार ने उन्हें भोजन पर आमंत्रित kiyaa। गुरु नानक जी ने विनम्रता से मना कर दिया। फ़िर एक गरीब किसान ने आ कर उनसे अपने यहाँ भोजन कराने का आग्रह किया। गुरु नानक जी तुंरत मान गए।
इधर जमींदार अपनी बात की अवहेलना से बहुत नाराज़ हुआ। उसने गुरु नानक को शिष्य समेत पकड़ आने का आदेश दिया। गुरु नानक के पहुँचने पर उसने बड़े क्रोध से उसका आतिथ्य स्वीकार न कराने का कारण पूछ। गुरु नानक ने जमींदार के यहाँ से खाना मंगवाया। फ़िर किसान के यहाँ से भी। कहते हैं की जमींदार के यहाम का खाना के कर उनहोंने निचोडा तो उसमें से खून की धारा बह निकली। अब उनहोंने किसान के यहाँ का खाना निचोडा तो उसमें से दूध की धार बह निकली। गुरु नानक ने कहा की इसीलिए मैंने तुम्हारे यहाँ का भोजन स्विक्कर नहीं किया क्योंकि इसमें ग़रीबों का खून व् हाय मिला हुआ है, जबकि इस किसान की मेहनत मजूरी की रोटी में सच्ची मेहनत और लगन बसी हुई है।
Wednesday, March 4, 2009
गुरु नानक और उनका आशीष
दूसरे दिन फ़िर से यात्रा शुरू हुई। शाम होने पर फ़िर से सभी ने एक दूसरे गाँव में विश्राम लिया। इस गाँव के लोग बेहद ख़राब थे। उनके स्वागत-सत्कार की बात तो दूर, किसी ने उन्हें पूछा तक नहीं। उलटा सभी ने उन्हें अपशब्द कहे। चलते समय गुरु नानक ने उन सबसे कहा की "तुम सब एक ही जगह बने रहो।"
शिष्यों को गुरु नानक की यह बात बड़ी अजीब लगी। एक शिष्य ने पूछा की जब पहले वाला गाँव इतना अच्छा था, तो आपने उन सभी को बिखर जाने को कहा, और ये लोग जो इतने ख़राब हैं, उन्हें एक ही जगह रहने को कहा।"
गुरु नानक ने उत्तर दिया- "पहले गाँव के लोग जहाँ भी जायेंगे, अपने स्वभाव से अच्छाइयां फैलायेंगे। इसलिए उनके जाने से सभी तरफ अच्छा होगा। दूसरे गाँव के लोग एक ही जगह रहेंगे तो उनकी बुराइयां भी उसी जगह तक सीमित रहेगी। इसीलिए मैंने पहले गाँव के लोगों को बिखर जाने व् दूसरे गाँव के लोगों को एक ही जगह रहने का आशीष दिया।
इसे तो फरक पङता है.
Tuesday, March 3, 2009
उबले बीज का पौधा
सभी बीज ले कर आए और सभी ने अपने-अपने घर के गमले में इसकी देख-रेख कराने लगे। साल भर बाद सभी फ़िर से एक जगह एकत्र हुए। सभी अपने-अपने गमले ले कर आए थे। रंग-बिरंगे गमले और उनमें रंग-बिरंगे पौधे और उन पौधों में रंग-बिरंगे फूल।
मैनेजर इन सबको देखा कर बेहद प्रसन्न हुआ। वह सभी गमलों का मुआयना कराने लगे। सभी हरे-भरे और लहलहाते पौधों के बीच उसने एक गमला पाया, जिसमें मिट्टी तो थी, मगर उसमें न तो पौधा था और ना कुछ और। वह अधिकारी जैसे शर्म से काठ हुआ जा रहा था। बिना पौधे का गमला देख बाक़ी सभी सहभागी ठठा कर हंस पड़े। लेकिन यह क्या? मैनेजर ने उसे ही पुरस्कृत कर दिया। बाकी सभी सहभागियों को जैसे काठ मार गया। ज़ाहिर सी बात थी की सभी ने मैनेजर से इसकी वजह पूछी। मैनेजर ने बड़े शांत स्वर में उत्तर दिया की उसने सभी को उबले बीज दिए थे। लिहाजा किसी भी बीज से पौधा निकलना सम्भव नहीं था। लेकिन चूंकि मैंने कहा था, इसलिये सभी ने अपनी- अपनी तरफ़ से एक बीज बो कर उसे गमले में उगा दिया और उसे ले आए। इस अधिकारी ने यह नहीं किया और पूरी इमानदारी से उसानेसाहस के साथ वह इसे सभी के बीच ले भी आया। यह कबूल किया।
Tuesday, February 24, 2009
बिटिया और धरती
माँ ने सोचा कि यह कठिन काम होगा और बिटिया को इसमें वक़्त लगेगा। इस बीच वह भी अपनी कमर सीधी कर लेगी। परन्तु यह क्या। मुश्किल से कुछ पल बीते होंगे कि बिटिया बोला पडी- "माँ, मैंने धरती जोड़ दी।" माँ को बड़ी हैरानी हुई। उसने देखा कि बिटिया ने सच्मुअच सारे तुकडे जोड़ दिए हैं। उसने पूछा कि इतनी ज़ल्दी उसने कैसे जोड़ दिया? "बहुत आसानी से", बिटिया ने जवाब दिया, " इस पन्ने के पीछे एक छोटी बच्ची की तस्वीर थी। मैंने उस बच्ची की तस्वीर जोड़ दी, बस धरती अपने-आप जुड़ गई।
Wednesday, February 18, 2009
गधा और खच्चर
खच्चर के मालिक के लिए यह बड़ी मुसीबत आन पडी। इस जगह अब दूसरी सवारी उसे कहाँ मिलेगी? थोड़ी देर तक तो वह सोच-विचार में डूबा रहा और फ़िर उसने एक उपाय किया। उसने गधे की पीठ पर का सारा बोझा खच्चर की पीठ पर लाद दिया। दुगुने बोझ से मारा खच्चर सोच रहा था की काश, उसने गधे की बात पहले मान ली होती तो यह दूना बोझ उसे उठाना तो ना पङता।
Tuesday, February 17, 2009
सहारा
Monday, February 16, 2009
दुःख की साझेदारी
Sunday, February 1, 2009
बुरा जो देखन मैं चला
गुरु ने कहा, की अछा व् बुरा व्यक्ति अपने ही मन में होता है। जिसकी जैसी भावना रहती है, वह अन्य को उसी भाव से देखता है। संत कबीर ने भी कहा है-
"बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिल्या कोई,
जो दिल खोजा आपना, मुझसा बुरा न कोय।"
Friday, January 30, 2009
कोयले का अभिमान
एक दिन चूल्हे ने कहा, देखा, अपनी सीमा में रह और जल। तुम्हारी सार्थकता तभी तक है, जबतक हम मिट्टी के रूप में तेरे साथ हैं और तुझे अपनी गोद में बचाकर रखते हैं। कोयले को गुस्सा आया। उसने कहा की जब वह अहै, तभीतक लोग चूल्हे को पूछेनेगे। चूले ने मुस्कुराते हुए कहा की अगर ऐसा ही है तो ज़रा बाहर निअक्ला, और देखा अपना ताप। कोयला आनन्-फानन में चूले से बाहर आ गया। मगर यह क्या? बाहर निकलते ही वेह निस्तेज सा हो गया। उया पर राख की परत भी तुंरत छ गई। चूलेह ने कहा, अपने अन्य साथी कोयले को देखो, समूह मैं और एक दायरे में रहा कर वे कैसे लहक रहे हैं। समूह की ताक़त बहुत बड़ी चीज़ होती है और अपने दायरे की पहचान से अपने अस्तित्व का बोध होता है। कोयला शर्मिन्दा होकरगया। वह फ़िर से चूल्हे के भीतर चला गया। देखते ही देखते वह अपने अन्य साथियों की तरह फ़िर से चमकने लगा।