टहलते हुए आइए, सोचते हुए जाइए.

Thursday, August 12, 2010

सूरज को घेर लो!

एक राजा था. बस, कहने भर को. अकल धेले भर की भी नहीं. एक बार वह अपने मंत्री के साथ नदी किनारे टहल रहा था. वह नदी पूरब की ओर बह रही थी. राजा ने मंत्री से पूछा, “पूरब की तरफ कौन सा देश है?” मंत्री ने जवाब दिया – “पूरब की ओर राजा शूरसेन का देश है.”

राजा शूरसेन का नाम सुनकर राजा क्रोध से भर उठा. राजा शूरसेन वीर थे, विवेकवान थे, वुद्धिमान और न्यायप्रिय थे. ऐसी कोई बात नहीं थी, जिससे राजा शूरसेन से इस राजा की तुलना की जा सके. राजा शूरसेन की प्रसिद्धि से वह बहुत जलता था. उसने क्रोध मे भरकर कहा, “वह दुष्ट राजा हमारी नदी का पानी ले रहा है. फौरन बांध बंधवाओ और उधर का पानी बंद कर दो. “

मंत्री ने समझाने की बहुत कोशिश की, मगर राजा कहां माननेवाला? बांध का काम शुरु हो गया और कुछ ही दिनों में बांध तैयार हो गया. नदी का पानी रुक गया. बहती नदी की धार अपना बहाव ना पाकर इधर उधर अपनी धार तोडती फोडती आगे बढ चली, गांव शहर, डगर को डुबोती. चारो ओर हाहाकार मच गया. मगर सभी उस दुष्ट राजा के स्वभाव से परिचित थे. इसलिए किसी की भी हिम्मत उसके पास जाने की नहीं थी.

सभी मंत्री के पास पहुंचे. मंत्री खुद ही चिंता में डूबा हुआ था. शहर डूब रहा था, गांव डूब रहे थे, लोग अपने जान-माल के साथ डूब रहे थे. काफी देर तक सोचने के बाद उसने सभी से कहा कि “आपलोग घर जाइये. मैं कुछ ना कुछ उपाय करता हूं. “

मंत्री ने रात के पहरेदार को कहा कि वह एक एक घंटे पर समय का घंटा बजाने के बदले आधे आधे घंटे पर समय का घंटा बजाए. उस समय घडी नहीं था और लोग महल के घंटे की आवाज सुनकर ही समय का अंदाज़ा लगा पाते थे. सिपाही ने आधे आधे घंटे पर घंटा बजाना शुरु किया. नतीज़न, बारह बजे रात में ही लोग छह बजे का समय समझ बैठे. सभी उठ गए और बाहर आ गए. राजा भी आंखें मलता हुआ बाहर आया और घनघोर अंधेरा देख कर चौंक पडा. उसने मंत्री को बुलाया और पूछा कि “सूरज अभी तक क्यों नहीं निकला है?”

मंत्री ने जवाब दिया कि जब राजा शूरसेन को यह पता लगा कि आपने उनकी ओर बहनेवाले पानी का रास्ता बंद कर दिया है तो उन्होंने पूरब की ओर से निकलनेवाले सूरज को पकड कर बंदी बना लिया है. उनका कहना है कि जबतक पानी नहीं छूटेगा, तबतक सूरज को भी क़ैदी बनकर बंदी गृह में रहना होगा.”

यह सुनकर राजा के होश उड गए. बिना सूरज के काम कैसे हो सकता है? सुबह कैसे होगी, शाम कैसे होगी? उसे राजा शूरसेन की ताक़त का भी अंदाज़ा हो गया. जो राजा सीधा सूरज को ही बंदी बना कर रख सकता है, वह कितना बलशाली होगा?” वह डर गया. उसने कहा, “तुम जल्दी से बांध काटकर पानी उस तरफ की ओर बहा दो, ताकि राजा शूरसेन सूरज को आज़ाद कर सके.”

सभी मिलकर बांध काटने लगे. बांध काटते काटते सवेरा हो गया. सूरज की लाली चारो ओर छाने लगी. बांध काटने का काम पूरा नहीं हुआ था. राजा ने कहा, “बिना पूरा बांध कटे ही उसने सूरज को रिहा कर दिया?”

“जी महाराज.” मंत्री ने जवाब दिया, “जब राजा शूरसेन ने देखा कि आपने बांध को काटने का आदेश दे दिया है, तब उन्होंने भी सूरज को आज़ाद कर देने का आदेश दे दिया. जब उन्होंने देखा कि यहां के लोग बांध काट रहे हैं, तब उन्होंने भी सूरज को आपके यहां आने की मंजूरी दे दी है. इसीलिए सूरज पूरब की ओर से निकलता हुआ इधर आ रहा है, वो देखिए महाराज.” ###

Thursday, August 5, 2010

किसका आदर?

पंडित ईश्वरचंद्र विद्यासागर बंगाल के बहुत बडे विद्वान थे. सभी उनका आदर करते थे. वे बहुत ही सादा जीवन बिताते थे.

एक बार शहर के एक रईस ने अपने यहां भोज का आयोजन किया. उस आयोजन में उसने शहर के सभी नामी लोगों को बुलाया. पंडित ईश्वरचंद्र विद्यासागर को भी आमंत्रित किया गया. वे हमेशा की तरह अपनी सादा वेशभूषा, यानी धोती-कुर्ता में गए. दरबान ने यह सोचा कि यह कोई गरीब ब्राह्मण है और कुछ पैसे या दान मांगने आया है. उसने पंडित ईश्वरचंद्र विद्यासागर को अंदर जाने नहीं दिया.

पंडित ईश्वरचंद्र विद्यासागर घर लौट गए. अबकी बार उन्होंने बहुत अच्छे और मंहगे कपडे पहने. दरबान ने उन्हें तुरंत अंदर जाने दिया. खाने की मेज पर पंडित ईश्वरचंद्र विद्यासागर भोजन की हर वस्तु को उठा कर कभी कोट तो कभी पतलून तो कभी टाई के पास ले जाते और कहते- “लो खाओ. यह तुम्हारे किए है. देखो, कितना स्वादिष्ट है. इसे बनाने में पैसे भी बहुत खर्च हुए हैं.”

किसी को भी कुछ समझ में नही आ रहा था. रईस ने पंडित ईश्वरचंद्र विद्यासागर से इसका कारण पूछा. पंडित ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने हंसते हुए जवाब दिया कि “यह भोज तो कपडों के लिए है. जब मैं यहां अपने साधारण कपडों में आया था, तब मुझे अंदर आने नहीं दिया गया. अब इस कपडे में आया हूं तो सभी मेरा आदर सत्कार कर रहे हैं. इससे मुझे पता चला कि यह भोज मेरे लिए नहीं, मेरे कपडों के लिए है. इसलिए मैं यह सारा भोजन इन कपडों को करा रहा हूं. “

रईस यह सुनकर बहुर शर्मिंदा हुआ. उसने पंडित ईश्वरचंद्र विद्यासागर से इसके लिए माफी मांगी और उनसे भोजन करने का अनुरोध किया. पंडित ईश्वरचंद्र विद्यासागर तो विद्वान और समझदार थे ही. उन्होंने सहर्ष भोजन किया.