टहलते हुए आइए, सोचते हुए जाइए.

Friday, January 30, 2009

कोयले का अभिमान

कोयले को इस बात का बहुत अभिमान था की वह जन साधारण के काम आता है। उअसके ताप से लोगों के चूल्हे जलाते है, लोहार की धौंकनी चलती है, सुनार का गहना गधाता है, कुम्हार के बर्तन आंव में पकाते हैं। अपने अभिमान में वह धू-धू कर जलता रहा और लोगों को बेवज़ह ताप भी पहुंचाता रहा।
एक दिन चूल्हे ने कहा, देखा, अपनी सीमा में रह और जल। तुम्हारी सार्थकता तभी तक है, जबतक हम मिट्टी के रूप में तेरे साथ हैं और तुझे अपनी गोद में बचाकर रखते हैं। कोयले को गुस्सा आया। उसने कहा की जब वह अहै, तभीतक लोग चूल्हे को पूछेनेगे। चूले ने मुस्कुराते हुए कहा की अगर ऐसा ही है तो ज़रा बाहर निअक्ला, और देखा अपना ताप। कोयला आनन्-फानन में चूले से बाहर आ गया। मगर यह क्या? बाहर निकलते ही वेह निस्तेज सा हो गया। उया पर राख की परत भी तुंरत छ गई। चूलेह ने कहा, अपने अन्य साथी कोयले को देखो, समूह मैं और एक दायरे में रहा कर वे कैसे लहक रहे हैं। समूह की ताक़त बहुत बड़ी चीज़ होती है और अपने दायरे की पहचान से अपने अस्तित्व का बोध होता है। कोयला शर्मिन्दा होकरगया। वह फ़िर से चूल्हे के भीतर चला गया। देखते ही देखते वह अपने अन्य साथियों की तरह फ़िर से चमकने लगा।